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Monday, April 11, 2022

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो 
रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो 
 
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को 
ये भी हो सकता है वो सामने बैठा ही न हो
(ज़फ़र इक़बाल)

दुनिया के बारें में कभी ठीक-ठीक समझ नहीं पाया। कभी लगता है दुनिया मेरे जैसों के लिए नहीं है। कभी लगता है कि दुनिया का मतलब मेरे लिए तुम्हारा होना है जैसे, और कुछ नहीं। कभी किसी दिन यूँ ही अगर मन लग गया दुनिया में तो लगने लगता है कहीं सब कुछ ख़त्म ना हो जाए अगले ही पल। कहीं अगले ही पल दुनिया ख़त्म ना हो जाए। जैसे अचानक से कोई आपदा ना आ जाए या कोई विश्वयुद्ध जिसमें दुनिया ख़त्म ही हो जाए।

मेरे लिए दुनिया यानी तुम। तुम्हें सामने बैठकर देखते रहना, दुनिया का ऑब्जरवेशन करते रहना। सिर्फ़ ऑब्सर्वसशन आलोचना नहीं।
तुम्हारा रोज़ रात गए मेरे सामने आ कर बैठे रहना। हालाँकि कोई इसका यक़ीन नहीं कर सकता कि तुम रोज़ मेरे सामने होती हो या मैं तुम्हें वैसे महसूस करता हूँ जबकि तुम हो नहीं यहाँ। पर अच्छा लगता है तुम्हें यूँ महसूस करना। 
अब कहानी लिख नहीं पाता पता नहीं क्यूँ। शायद कहानियों के यथार्थ अंत,दुखद अंत से डरता हूँ। इन दिनों मेरा एक क़रीबी मित्र ख़ूब कहानियां लिखता है या ठीक ठीक कहानी नहीं कुछ कुछ क़िस्से जैसा। पर मैं नहीं लिख पाता। शायद तुम गयी तो मेरा शब्दकोश रिक्त हो गया। जैसे तुम्हारे सामने होने से मैं निशब्द हो जाता रहा हूँ हमेशा से। सिर्फ उन दोपहरों के अलावा जब तुम ख़ूब बातें करती थी और मैं कुछ कुछ बोल पड़ता था या कि तुम्हारी वो बातें जो तुम बीच मे छोड़ देती थी उन्हें आगे बताने का आग्रह करता रहता था। फिर एक दिन मैंने तुम्हें पूरी तरह जान लिया। उसी दिन से तुम फिर से मेरे लिए अजनबी हो गयी थी। 
सोचता हूँ तुम्हें ख़त लिखूँ उसमें ये सब लिखूँ जो तुम्हारे आगे नहीं कह पाता। सोचता हूँ कि तुम्हें भेज दूँ कोई पसंदीदा किताब जिसपर मैंने जगह जगह अंडरलाइन कर रखा हूँ उन वाक्यों को जिन्हें मैं तुम्हें हमेशा कहने से डरता रहा हूँ। कई बार चाहा था कि विदा करते हुए तुम्हें गले लगा कर रो पडूँ। पर ये नहीं कर पाया कभी। शायद तुमसे हाथ भी ना मिला पाया। पर तुमने भी तो पलट कर नहीं देखा कभी एक बार भी नहीं। जबकि हमेशा रहा इतना अवकाश कि तुम देखती पलटकर या मैं तुम्हें गले लगाकर विदा करता। सोचता हूँ कि मेरा लिखा जब तुम तक पहुँचता है तो तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव आते होंगे,  तुम्हारे मन में भी उठता होगा कोई उबाल?
कितना कुछ है जो सिर्फ़ तुम ही कह सकती हो।कितना कुछ। कितना मुश्किल रहा होगा मेरे लिए ख़ुद को कन्विंस करना, शायद कभी सोचा नहीं होगा तुमने। तुम्हें अवकाश नहीं मिला होगा सोचने का या कि तुम आगे निकल चुकी हो इतना जहाँ से मुड़कर कुछ दिखाई ना देता होगा। कितनी बातें लिखी जा सकती है ख़त में ?.. सोचता हूँ। कितना छोटा सा रास्ता है तुम्हारे घर से मेरे घर तक आने का, मगर कितना वक़्त लगता है ना छोटा सा रास्ता पार करने में। 
डरता भी हूँ कि तुमने जो रास्ता चुना है कहीं ग़लत ना निकल जाए। पर भरोसा भी है एक जो कहता है तुम मैनेज कर लोगी। क्या वो सारे लोग अब भी मिलते हैं जो पहले मिलते थे? मुझे मिल जाते हैं सरे राह। कुछ कहते नहीं बस मुस्कुराते हुए गुज़र जाते हैं, जवाब में मैं भी एक फीकी मुस्कान दे देता हूँ। 
सोचता हूँ मुस्कुराना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। ख़ैर तुम तो ख़ुश हो तो मैं भी ठीक ठाक। आँखों में जलन होती थी और सरदर्द भी। चेक अप कराया था सब ठीक है बस स्क्रीन ग्लासेस का कह दिया था डॉक्टर ने।  आजकल चश्मा लगाते हैं लैपटॉप पर काम करते वक़्त और चाय बिल्कुल कम कर दी है। 
तुम्हारा फ़ैसला सही हो। दुआ है।

मैं रस्मन कह रहा ठीक हूँ मैं
वगरना ठीक जैसा कुछ नहीं है......
*****
नितेश
30 अप्रैल 2022 के आसपास शायद!

Thursday, March 24, 2022

एंजायटी के दिनों के नोट्स - १

कोई ग़ज़लें सुनाएगा तो मेरी याद आएगी..सुनोगी जब कोई नगमा  तो मेरी याद आएगी.
के जब आएगी मेरी याद तो सोने नहीं देगी, अपनी बाँहों के तकिये से भी मेरी याद आएगी.
                                                                                ******
तुम नहीं थी तब जब तुम्हारी सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी. जब इंतज़ार था तब नहीं आयी तुम।
 बुरे दिनों की बुरी बात - ये नहीं थी कि दिन बुरे हैं- क्या थी जानती हो?
बुरे दिनों की बुरी बात ये थी कि साथ देने के लिए तुम नहीं थी। मौजूद ही नहीं बल्कि मन से भी नहीं। 
अच्छा हुआ बुरे दिन बीत गए.. वक़्त के साथ अच्छा ये भी होता रहा कि तुम्हारी आदत भी कम हो गयी और मैंने अकेले अच्छे वक़्त तक आने का अपना सफ़र पूरा किया।
ठीक हुआ कि इस अच्छे दिनों तक आने के सफ़र में तुम साथ नहीं रही, नहीं तो मुझे उम्र भर लगता कि मैं तुम्हारे कारण नई सुबह देख पाया। 
जो होता है अच्छे के लिए होता है।
                                                                                 ******
मन रमता जोगी है. दुनिया भर की बातें सोचता है  पर दुनिया के छल कपट में ठगा ही जाता है। जब कभी चालक बनने की कोशिश की, दोस्तों ने परायेपन से पूरा नाम लेकर कहा (अपनेपन में बस निशु बुलाते हैं ) ,
“नितेश कुशवाह तुम ज्यादा बनने लगे हो “
फिर से जब पहले जैसा रहने लगा तो सबने कहा कि बचपना छोड़ो भी, बड़े हो जाओ.
परिणाम ये हुआ कि मन में  उठने वाली बातें मन में दबने लगी.
समय के साथ बचपना छूटा भी. कई कई बातें होती जिनके बारें में लगता कि किसी करीबी दोस्त को बताएँ, पर फिर मन नहीं किया. कि उन बातों के वाक्य-विन्यास भी ना थे ठीक से. अब ऐसी बातें कैसे बताई जाये. और कोई क्या सोचेगा अजीब बातों को सुनकर.

एक वक़्त पर दिमाग में अजीब अजीब कई कई बातें एक साथ चलने लगी/ या उठने लगी . 
शायद उठने ही लगी होगी.. खैर ठीक ठीक मेरी लेखनी की पकड़ में नहीं आता. 
वो भाव महसूस किया जा सकता है बार बार, पर एक बार ठीक से लिखा नहीं जा सकता.बिल्कुल ऐसे जैसे कई चीटियाँ चल रही हो दिमाग में. 
 
                                                                             ******
जिन दिनों तुमसे बात नहीं होती थी, दुनिया जैसे काटने को दौड़ती थी. बात होने के दिनों में भी मैं कुछ ख़ास बात करता नहीं था. किसी से फोन पर बात करने का शऊर मुझे आज तक ना आया. बातें मैंने भी ख़ूब की पर जैसे नीरस सबकुछ.
 ह्म्म्म…हाँ….अच्छा..ठीक..क्यूँ… इससे आगे मुझे कुछ सुझा ही नहीं कभी..मेरी एक दोस्त थी.उससे जब भी बात होती. बात शुरू होने के 1 मिनट बाद हम एकदूसरे से कहने लगते कि कोई टॉपिक निकालो. ऐसे करके 1 मिनट बात और होती.फिर दोनों तरफ से बाय बोल दिया जाता. हाँ पर बात करते रहने से एक निबाह बना रहता या सब ठीक चल रहा हो ऐसा अंदेसा बना रहता. बात चाहे १० मिनट ही हो पर होनी चाहिए. इन दिनों जो उससे बात होती भी तो वैसी नहीं हैं. वो अनौपचारिकता बातों में नहीं है, जिनसे सब ठीक चलने का अंदेसा हो. बार बार मन की गांठ पड़ने से भी मन के रिश्ते वैसे नहीं रहते. फिर सब कुछ ठीक किया भी जा सकता है. पर मुझे शायद कुछ ठीक करने से ज़्यादा सुख उसकी बातें करने में ( यहाँ  लिखने में पढ़ा जाये ) आता है.
                      हाँ अब भी बातें तुमसे नहीं होती, अब भी दुनिया काटने को दौड़ती हो पर अब चमड़ी मजबूत हो गयी है. कि फ़र्क पड़ता नहीं अब कुछ भी.. हाँ बताना ये भी था कि अब भी अपनी पसंद की ही कॉलर ट्यून है.
                                                                             ******
          
                पता नहीं याद के इस टुकड़े को यहाँ रखना ठीक है या नहीं. क्यूँकी इसका कोई भी सिरा  एन्जआयटी से नहीं जुड़ा है. ये जुड़ा है अलगाव  से, बिछड़ने से नहीं, बिछड़ना एक बड़ा भारी शब्द है जो अपने इस्तमाल के साथ बड़ा भारी  दुःख लेकर आता है.. इसलिए कहा कि ये अलगाव से जुड़ा है.. तो उससे अलग होने के बाद ऐसा कोई ख़ास दुःख नहीं आया जो किसी के बिछड़ने से आता है. जैसे हफ्तों भूख ना लगना, प्यास की सुध बुध ना रहना. किसी काम में मन ना लगना. मौसम की जानकारी ना रहना,ये सब सामान्य चीज़े बराबर चलती रही. नियत वक़्त पर, जिंदगी चलती रही वैसी ही जैसी चल रही थी. फ़र्क आया था वक़्त के उस हिस्से में जो उसके नाम रहा करता था.. वो  थोड़ा सा समय का टुकड़ा जैसे उस पर फफूंद उग आई थी या जैसे सीलन लग जाने पर कमरे की दीवार बार बार ध्यान खींचती है अपनी दीन दुर्दशा पर वैसे दशा में आ गया था . उस समय के खालीपन में एक स्थिरता थी, एक ऊब और एक बहुत खिंचापन था.
सोचता हूँ वो क्या था, जो अब तक भी बराबर बना हुआ है.किसी के जाने से सारा सब ठीक हो जाता है या प्रिय ना हो, मन  से उतर गया हो तो भुलाया  जा सकता है लेकिन वो जो वक़्त होता है किसी हिस्से का उसका एक अरसे तक ठीक ठीक ठिकाना नहीं लगता.. 
हम लोग उस समय का उपयोग किसी ऐसी जगह जरुर कर सकते हैं जिसमें दिमाग से ख़ूब ख़ूब काम लिया जा सके. बाकि एक दिन ये भी ठीक हो ही जाएगा. ऐसी उम्मीद तो कर ही सकते हैं. हैं ना ?   

*****
नितेश 
19-3-2022

Thursday, March 10, 2022

स्व से पलायन: एक आत्ममंथन

घर में रहते हुए यूँ तो लगता था कि अपनो के  आस-पास हैं, पर अपने आप से दूर होकर कैसा लगता है ये सिर्फ मुझे घर ही ठीक-ठाक तरह से महसूस होता था। मैं घर में तीसेक दिन रहता तो मुझे जैसे घर काटने को दौड़ता था। मेरा बचपन से ही कहीं भाग जाने का मन करता था, पर मैं कभी ज़्यादा दिन तक के लिए कहीं भाग नहीं पाया।

भाग कर जाना कहाँ ? शायद ये सवाल मैं कभी हल नहीं कर पाया।

दरअसल मैं अपने आप से भागना चाहता रहा हूँ।वये मुझे बिल्कुल ठीक तरह से तब पता चला जब मैंने अज्ञेय से सम्बन्धित या अज्ञेय का लिखा हुआ “स्व से पलायन ...” जैसा कुछ पढ़ा। कई दिनों तक मैं उसके आकर्षण में रहा।

फिर एकाएक एक दिन मुझ पर खुला कि यही तो मैं चाहता था/हूँ।  स्व से पलायन....ख़ुद से भागना..

मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता था.ख़ुद का मतलब जो मैंने अब तक जीया। मैं वर्तमान में तो रहना चाहता था , मगर ऐसा वर्तमान जहाँ भूत ना हो, बिल्कुल भी नहीं।

सबके अपने-अपने पिंजरे होते हैं, पर सब आज़ाद होना नहीं चाहते।

मेरे लिए मेरा पिंजरा मेरा अतीत था या हमेशा से रहा है।मैं अतीत से भागना भी इसलिए चाहता रहा हूँ कि मुझे वो सब ग़लतियाँ नहीं करनी थी जो मैंने की। जिसका एक बड़ा परिणाम मैंने भोगा। पर इतनी सारी गलतियाँ सुधारना मुश्किल होता, उससे आसान होता सारे अतीत को मिटा देना।

 स्व से पलायन मतलब  क्या? ये ठीक-ठीक मेरे लेखन की पकड़ में नहीं आता। लेकिन मैं ख़ुद को अपने से बाहर महसूस करना कैसा होता है. बिल्कुल वैसा महसूस करना चाहता हूँ। एक-दो बार शायद मैंने महसूस किया भी है।वैसे ही मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ ख़ुद को सामने वाले पेड़ की डाली पर बैठी चिड़िया जैसे मुझको देख रही है उस निगाह से।

 अक्सर मैं जब बैठता हूँ कहीं चाय की टपरी पर तो वहाँ से जाते हुए 2-3 बार मुड़कर देखता हूँ कि कुछ छूट तो नहीं गया। दरअसल मैं ख़ुद को कहीं थोड़ा-सा छोड़ आता हूँ या भूल आता हूँ शायद। मेरे जिस छूटे हुए हिस्से को मैं पलटकर देखता हूँ 2-3 बार, वो दिखाई नहीं देता, शायद उड़ जाता है हवा में या ब्रम्हांड में चले जाता हो पता नहीं। लेकिन कुछ तो छूटता ज़रुर है।

कभी-कभी चलते चलते मैंने महसूस किया है कि मैं रेत की तरह कुछ-कुछ रिसता जा रहा हूँ। ठीक-ठीक रेत की तरह भी नहीं थोड़ी कम गति से, लेकिन रिसता जाता हूँ।

शायद ये मेरा अतीत ही हो जो जगह-जगह मुझसे कहीं छूट जाता है, जो रिसता जाता है। असल में हम जैसे लोग अभावों में जिए हुए लोग हैं। जो कुछ हमने ख़राब भोगा उसे हम छोड़ देना चाहते हैं। कहीं किसी गहरी खाई में फेंक देना चाहते हैं। हम हमारे हिस्से की खुशियों पर ज़्यादा दिन ख़ुश नहीं रह पाते।हम दुखो को ढोने के इतने आदि हो चुके हैं कि अगर थोड़े-थोड़े अवकाश के बाद पीड़ा ना नज़र आये तो हम उसके कारण खोजने लगते हैं।

हम अपने अभावों से भाग जाना जाता हैं, अपने अतीत से भाग जाना चाहते हैं, हम भूत से भागना चाहते हैं, वर्तमान में हो रही घटनाओं के प्रति उदासीन रहकर हम वर्तमान, भविष्य सब से भाग जाना चाहते हैं। हम थके हुए लोग हैं। पर एक दिन हम भाग कर लौट आएंगे वो जो लोग भटकते हुए नाकाम हो जाते हैं और घर लौट आते हैं उनकी तरह। अभी आवारागर्दी भली लग रही है। भागने में आनंद है।

-नितेश 

१० मार्च २०२२



           


Monday, February 21, 2022

बूढ़ी कविताएँ


बहुत कच्ची उम्र में लिखी गयी कविताएँ एक दिन सीधे बूढ़ी हो जाते हैं। वे जवान नहीं होती। एकाएक बाल पककर सफेद हो जाते हैं उनके।
और वो माँगने लगती हैं जवाब कि क्यूँ नहीं आये उनके जवानी के दिन। वो होती रहती हैं शर्मिंदा, तरतीब से कहीं गयी ग़ज़लों और कविताओं के बीच। उन्हें पटक दिया जाता है पुराने से कभी ना इस्तेमाल करने वाले नोटपैड में या ज़्यादा से ज़्यादा उस डायरी को रख दिया जाता है उस कोने में जहाँ से कौन उन्हें आसानी से ढूंढ ना पाए। उन कविताओं पर जमती रहती है धूल, लाइब्रेरी के उस वृद्धाश्रम में। उन्हें बार बार बेइज्जत किया जाता है कि तुममें व्याकरण दोष हैं, मात्राओं की अशुद्धियां हैं। जबकि उनमें होते हैं अपार अनुभव- अपार भावनाएं। 
हा.. हा.. हा...
बूढ़ों की भावनाओं की कद्र कौन करता है
पुरानी कविताएँ की कद्र कौन करता है।
-नितेश

Sunday, February 6, 2022

यादों का झरोखा

यादों का झरोखा..!!
नमस्कार! मेरी यादों के इस डिजिटल झरोखे में आपका स्वागत है।
 दैनिक दिनचर्या में जब कभी यादों की दराज से कुछ स्मृतियाँ बाहर निकलकर झाँकने लगती हैं, तो मैं भी कुछ देर उन्हें गले लगाकर पुरानी कोई बात कहने सुनने लगता हूँ। बस उन्हीं किस्सों के आस-पास कहीं यादों,बातों, कल्पनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश ये ब्लॉग है। आपका साथ हमेशा से रहा है। उम्मीद है ये साथ बना रहेगा। शायद मेरी कोई याद आपकी भी किसी याद जैसा हो। इसी उम्मीद से जो कुछ भी लिखूँगा आप तक इस ब्लॉग के माध्यम से पहुँचता रहेगा।
बहुत धन्यवाद🙏

Monday, January 31, 2022

मौन में रिश्तों की बात


किसी बहुत क़रीबी से मतभेद होना कोई बहुत बड़ा विषय नहीं है.
मतभेद बड़ी आसानी से दूर किए जा सकते हैं, बस इस आसानी में जो मुश्किल आती है वो ज़िद और ईगो की है.और चीज़ें हमेशा से ख़राब नहीं होती, एक पड़ाव आता है वही आगे का फ़ैसला करता है.
बाकि तो समय है निकल जाता है और जो होता है अच्छे के लिए ही होता है.

एक छोटी सी यात्रा में हूँ. बस में एक गीत चल रहा है. गीत में पंक्तियाँ आती है-
"अगले जनम विच अल्लाह ऐसा खेल रचा के भेज़े
मैनू तू बना के भेज़े,तैनू मैं बना के भेज़े
वे फ़ेर तैनू पता लगना."
 काश ऐसी ही परिस्थितियों में अगले जन्म में हो और तू मेरी जगह हो तब शायद  तुझे एहसास हो कि मेरे दुख क्या है. मैंने कितने दंश झेले हैं. कितना सहन किया है. मेरी ज़िन्दगी कितनी मुश्किल है तेरी कितनी आसान. तुझे एहसास होगा कि मुझ पर क्या बीतती है जब तू दुनिया के सामने  कुछ और होता है और मेरे आगे कुछ.

इसका जो भाव है वो कोई ऐसी नई बात नहीं है,जो अब तक ना कही गई हो. मनुष्य ने जितना विकास किया है उसमें उसे ख़ुद का दुख दूसरे से बड़ा ही दीखता है. दूसरे की थाली में घी ज़्यादा ही दिखा है.इससे इतर दूसरी बात ये कि मानव मन इतना विशाल और संवेदनशील है कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति ये सोचता होगा कि उसे कोई नहीं समझता, सामने वाला उसकी जगह होता तब उसे एहसास होता कि उसने कितने दंश झेले हैं। ठीक भी है मनुष्य की अपनी प्रवत्ति है उसे अपना स्पेस चाहिए समझने वाला चाहिए, इसी के बूते पर तो सैकड़ों विचारधाराएं दुनिया में चल रही हैं.
कई बार आप किसी के जितने नज़दीक जाते हैं आपको उतने ऐब नज़र आते हैं. शायद नज़रिया ही ख़राब हो ये कह ले या जो चाहे कहते रहें, ऐब तो नज़र आते हैं. जहाँ मधुरता ज़्यादा हो वहाँ मक्खियां तो पनपेगी ही। मतभेद होंगे, विचारधारा बटेंगी.
सारी लड़ाई विचारों की ही तो है, मनुष्य और जानवर में सोचने की शक्ति का ही तो अंतर मात्र है.

अगर कुछ देर एक-दूसरे की जगह आपस में बदलकर देख लें तो शायद कई तरह से चीज़े ख़राब होने से पहले ही ठीक हो जाए. भारत भूषण पन्त साहब का एक शेर है कि
"अभी तक जो नहीं देखे वो मंज़र देख लेते हैं
चलो आपस मे हम आँखें बदलकर देख लेते हैं"

अभी तक हम जो सिर्फ़ अपने नज़रिए से देख रहे हैं उसे थोड़ी देर के लिए बदलकर देख लें तो चीज़ें ख़राब ना भी हो शायद.
शायद!
यहाँ झोल ये है कि हम अतिवादी लोग हैं.हम सब एक रेस में लगे हैं, हमें जल्दी प्रतिक्रिया देनी हैं. क्यूँकि हमारी कंडीशनिंग ऐसी हुई है. क्रिया हो गयी, प्रतिक्रिया दो. जल्दी जवाब दो,नहीं तो सामने वाला आगे निकल जाएगा.
बस इसी चक्कर मे जहाँ थोड़ा पॉज लेना था, थोड़ा रुकना था, सोचना था, समझना था. वो सब नहीं हुआ. प्रतिक्रिया हो गयी.
ये क्रम आगे चलता है.
अब मनुष्य जो सोचता है उसकी मानसिकता वैसी ही होती जाती है. नज़रिया जैसा रखता है नज़रे वही दिखाने लगती हैं. 
फिर इसके बाद ज़िद, ईगो, सुपर ईगो...चीज़ें ख़राब होती है. नकारात्मकता बढ़ती है. सम्बन्ध ख़राब होते हैं. शब्द भी ख़त्म हो जाते हैं. हो चुके हैं.
-नितेश
31.01.2022
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Wednesday, January 19, 2022

चाय पीने इतना वक़्त

अगर मरने के बाद हम सोचते तो ये ज़रुर सोचते कि "काश मौत ऐसे यूँ अचानक से ना आ गयी होती।"
आ भी गई होती तो घड़ी भर का वक़्त देती साथ मे चाय पीने जितना। कहती कि कुछ पल हैं अभी तुम्हारे पास। रिलैक्स! चाय पीने इतनी देर रुका जा सकता है। काश कि मौत की प्रक्रिया में कुछ ऐसे पलों की रियायत होती, जिनमें अपनों को अलविदा कहा जा सकता। प्यार का चेहरा घड़ी भर याद कर लेते। उन लड़ाइयों के लिए माफ़ी मांग लेते मन ही मन, जिनके लिए ईगो के चलते सारी उम्र ख़ुद से मुँह बचाते रहे। उन किताबों को शुक्रिया कह पाते जिनके ना जाने कितने एहसान हैं।
उन लेखकों को मन ही मन कह पाते कि "हमारे मन एक जैसे हैं" जिन्होंने हमारे मन की बात तब कह दी जब हम उस बात को कहने के लिए शब्दकोश के पन्ने पलट रहे थे।
गुनगुना लेते कोई पसंदीदा शे'र।
यक़ीन दिला पाते किसीको कि हम उसे पाना नहीं चाहते थे बस कि पल भर उसके साथ होना चाहते भर थे। या उसके साथ होकर उसे छूकर देखना भर चाहते थे। कि ख़ुद को दिला सके यक़ीन कि वो है सचमुच, इस जहाँ में है। कल्पना भर नहीं है। सचमुच है।
कितना कुछ किया जा सकते है बस चंद पल में। लगता है मैं जितना सोच चुका हूँ उतना कुछ। और फिर ये पल ख़त्म हो जाते। मौत ने अपनी चाय की प्याली ख़ाली कर दी होती।
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नितेश
18.01.2022

Friday, January 14, 2022

भावुकता : एक खतरनाक रोग

रेणु मैला आँचल में कहीं लिखते हैं कि 
"भावुकता का दौर भी एक खतरनाक रोग है"
मुझे याद है कि भावुकता वश मैंने जब भी कोई फ़ैसला किया है,किसी के सामने कोई बड़ी बात कहीं है उसका परिणाम ख़राब ही रहा है.
दूसरी मज़ेदार बात, मुझे लगता है कि भावुकता में आदमी कम से कम सच ही बोलता है (या जो उसे सच लगता है)
और ये बात तो सिद्ध ही है कि सच बोलने से आज के दौर में परिणाम ख़राब ही निकलता है.

      भावुकता यानी भावों के प्रवाह में कहीं गयी बात. जितनी ज़्यादा भावुकता उतना ही ज़्यादा  नो फिल्टरेशन. ये भी समझने योग्य है कि जो व्यक्ति जितना अधिक भावुक होता है , उसमें सच्चा होने के उतने प्रबल चांस हैं. भावुक व्यक्ति सच्चा, ईमानदार, संवेदनशील होता है, लेकिन तर्क, रिश्तों के जोड़-घटाव, फ़ायदे-नुकसान में उतना ही कच्चा. बहुत कमाल की बात यह भी है कि जो व्यक्ति पहले-पहल भावुक, संवेदनशील होता है, एक वक़्त के बाद वो प्रैक्टिकल हो जाता है.
आख़िरश सभी को अपने-अपने रोगों से बाहर निकलना चाहिए. सच भी है भावुकता रोग ही तो है,नुकसान पहुँचाने वाला ख़तरनाक रोग.
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-नितेश
14 जनवरी 2022
7.22  pm

Tuesday, January 11, 2022

बोझ से मुक्त

तुम्हें खोना जैसे बहुत से बोझ से मुक्त होना हो.
तुम्हारे साथ तुम्हें ढोना और ख़ुद को भी.
जैसे एक थकान सी लगी रहती थी. अब लगता है कितना सुखद है ख़ुद को ख़ुद के हिसाब से चलाना.
सबको लगता है तुमसे बिछड़कर मैं उदास हूँ,
जबकि तुम्हारे साथ मैं ज़्यादा उदास था.
अजीब है ना !
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11जनवरी 2020, 12:00 AM

Monday, January 10, 2022

प्रार्थनाएं जो कभी ईश्वर ने नहीं सुनी

प्रार्थनाएं जो कभी ईश्वर ने नहीं सुनी..
एक ज़रूरी ई-मेल (जो शायद 3-4 दिन पहले आया हो) देखने के लिए मेलबॉक्स खोला.
तमाम तरह के ग़ैर-ज़रुरी मेल्स के बीच ज़रुरी मेल खोजना मुश्किल जान पड़ा. अचानक ज़ेहन में आया कि स्पैम (अवांछित फोल्डर) में देख लूँ. कुछ ही सेकण्ड्स में मिल गया.
              इसी प्रक्रिया में ख़याल आया कि वे ज़रुरी प्रार्थनाएँ जो कभी पूरी नहीं होती, क्या ईश्वर तक पहुँची होंगी कभी?
क्या ईश्वर भी कभी स्पैम में अनसुनी/ अवांछित प्रार्थनाएं खोजता होगा?
क्या हुआ होगा उन निवेदनों का, जो ईश्वर ने प्रथम दृष्टया देखकर "....बाद में सोचूँगा" जैसे जुमले से पेपरवेट के नीचे दबा दिए हो और भूल गया हो. 
कितनी प्रार्थनाएँ, कितने मन्नत के स्वास्तिक, धागे अपनी जगह पर प्रतीक्षा कर रहे हो कि एक दिन ईश्वर लोगों के भेजे हुए सभी प्रार्थनाओं, e mails ,मन्नतों को स्वीकार कर ले.
*****
१० जनवरी, २०२०. 
6.22 pm
(छायाचित्र - साभार  इंटरनेट)

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...