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Monday, April 11, 2022

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो 
रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो 
 
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को 
ये भी हो सकता है वो सामने बैठा ही न हो
(ज़फ़र इक़बाल)

दुनिया के बारें में कभी ठीक-ठीक समझ नहीं पाया। कभी लगता है दुनिया मेरे जैसों के लिए नहीं है। कभी लगता है कि दुनिया का मतलब मेरे लिए तुम्हारा होना है जैसे, और कुछ नहीं। कभी किसी दिन यूँ ही अगर मन लग गया दुनिया में तो लगने लगता है कहीं सब कुछ ख़त्म ना हो जाए अगले ही पल। कहीं अगले ही पल दुनिया ख़त्म ना हो जाए। जैसे अचानक से कोई आपदा ना आ जाए या कोई विश्वयुद्ध जिसमें दुनिया ख़त्म ही हो जाए।

मेरे लिए दुनिया यानी तुम। तुम्हें सामने बैठकर देखते रहना, दुनिया का ऑब्जरवेशन करते रहना। सिर्फ़ ऑब्सर्वसशन आलोचना नहीं।
तुम्हारा रोज़ रात गए मेरे सामने आ कर बैठे रहना। हालाँकि कोई इसका यक़ीन नहीं कर सकता कि तुम रोज़ मेरे सामने होती हो या मैं तुम्हें वैसे महसूस करता हूँ जबकि तुम हो नहीं यहाँ। पर अच्छा लगता है तुम्हें यूँ महसूस करना। 
अब कहानी लिख नहीं पाता पता नहीं क्यूँ। शायद कहानियों के यथार्थ अंत,दुखद अंत से डरता हूँ। इन दिनों मेरा एक क़रीबी मित्र ख़ूब कहानियां लिखता है या ठीक ठीक कहानी नहीं कुछ कुछ क़िस्से जैसा। पर मैं नहीं लिख पाता। शायद तुम गयी तो मेरा शब्दकोश रिक्त हो गया। जैसे तुम्हारे सामने होने से मैं निशब्द हो जाता रहा हूँ हमेशा से। सिर्फ उन दोपहरों के अलावा जब तुम ख़ूब बातें करती थी और मैं कुछ कुछ बोल पड़ता था या कि तुम्हारी वो बातें जो तुम बीच मे छोड़ देती थी उन्हें आगे बताने का आग्रह करता रहता था। फिर एक दिन मैंने तुम्हें पूरी तरह जान लिया। उसी दिन से तुम फिर से मेरे लिए अजनबी हो गयी थी। 
सोचता हूँ तुम्हें ख़त लिखूँ उसमें ये सब लिखूँ जो तुम्हारे आगे नहीं कह पाता। सोचता हूँ कि तुम्हें भेज दूँ कोई पसंदीदा किताब जिसपर मैंने जगह जगह अंडरलाइन कर रखा हूँ उन वाक्यों को जिन्हें मैं तुम्हें हमेशा कहने से डरता रहा हूँ। कई बार चाहा था कि विदा करते हुए तुम्हें गले लगा कर रो पडूँ। पर ये नहीं कर पाया कभी। शायद तुमसे हाथ भी ना मिला पाया। पर तुमने भी तो पलट कर नहीं देखा कभी एक बार भी नहीं। जबकि हमेशा रहा इतना अवकाश कि तुम देखती पलटकर या मैं तुम्हें गले लगाकर विदा करता। सोचता हूँ कि मेरा लिखा जब तुम तक पहुँचता है तो तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव आते होंगे,  तुम्हारे मन में भी उठता होगा कोई उबाल?
कितना कुछ है जो सिर्फ़ तुम ही कह सकती हो।कितना कुछ। कितना मुश्किल रहा होगा मेरे लिए ख़ुद को कन्विंस करना, शायद कभी सोचा नहीं होगा तुमने। तुम्हें अवकाश नहीं मिला होगा सोचने का या कि तुम आगे निकल चुकी हो इतना जहाँ से मुड़कर कुछ दिखाई ना देता होगा। कितनी बातें लिखी जा सकती है ख़त में ?.. सोचता हूँ। कितना छोटा सा रास्ता है तुम्हारे घर से मेरे घर तक आने का, मगर कितना वक़्त लगता है ना छोटा सा रास्ता पार करने में। 
डरता भी हूँ कि तुमने जो रास्ता चुना है कहीं ग़लत ना निकल जाए। पर भरोसा भी है एक जो कहता है तुम मैनेज कर लोगी। क्या वो सारे लोग अब भी मिलते हैं जो पहले मिलते थे? मुझे मिल जाते हैं सरे राह। कुछ कहते नहीं बस मुस्कुराते हुए गुज़र जाते हैं, जवाब में मैं भी एक फीकी मुस्कान दे देता हूँ। 
सोचता हूँ मुस्कुराना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। ख़ैर तुम तो ख़ुश हो तो मैं भी ठीक ठाक। आँखों में जलन होती थी और सरदर्द भी। चेक अप कराया था सब ठीक है बस स्क्रीन ग्लासेस का कह दिया था डॉक्टर ने।  आजकल चश्मा लगाते हैं लैपटॉप पर काम करते वक़्त और चाय बिल्कुल कम कर दी है। 
तुम्हारा फ़ैसला सही हो। दुआ है।

मैं रस्मन कह रहा ठीक हूँ मैं
वगरना ठीक जैसा कुछ नहीं है......
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नितेश
30 अप्रैल 2022 के आसपास शायद!

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...