रेणु मैला आँचल में कहीं लिखते हैं कि
"भावुकता का दौर भी एक खतरनाक रोग है"
मुझे याद है कि भावुकता वश मैंने जब भी कोई फ़ैसला किया है,किसी के सामने कोई बड़ी बात कहीं है उसका परिणाम ख़राब ही रहा है.
दूसरी मज़ेदार बात, मुझे लगता है कि भावुकता में आदमी कम से कम सच ही बोलता है (या जो उसे सच लगता है)
और ये बात तो सिद्ध ही है कि सच बोलने से आज के दौर में परिणाम ख़राब ही निकलता है.
भावुकता यानी भावों के प्रवाह में कहीं गयी बात. जितनी ज़्यादा भावुकता उतना ही ज़्यादा नो फिल्टरेशन. ये भी समझने योग्य है कि जो व्यक्ति जितना अधिक भावुक होता है , उसमें सच्चा होने के उतने प्रबल चांस हैं. भावुक व्यक्ति सच्चा, ईमानदार, संवेदनशील होता है, लेकिन तर्क, रिश्तों के जोड़-घटाव, फ़ायदे-नुकसान में उतना ही कच्चा. बहुत कमाल की बात यह भी है कि जो व्यक्ति पहले-पहल भावुक, संवेदनशील होता है, एक वक़्त के बाद वो प्रैक्टिकल हो जाता है.
आख़िरश सभी को अपने-अपने रोगों से बाहर निकलना चाहिए. सच भी है भावुकता रोग ही तो है,नुकसान पहुँचाने वाला ख़तरनाक रोग.
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-नितेश
14 जनवरी 2022
7.22 pm
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