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Tuesday, December 12, 2017

ट्रिंग-ट्रिंग

ट्रिंग....ट्रिंग....
"हेल्लो...!!"
"कैसे हो..?"
"अं...क...कौन...?"
"अच्छा!! तुम आवाज़ भी भूल गए...?"
"ओह अब पहचाना,,कैसी है..सॉरी कैसी हो तुम..?"
"मस्त हमेशा की तरह, तुम कैसे हो..?"
"वैसा ही जैसा तुम छोड़कर गई थी"
"कुछ भी पूछना ही बेकार है,,,अच्छा
ये बताओ हो कहाँ आजकल..?"
"फिजिकली तो यही पराये शहर में...और...
(बिच में रोकते हुए)
"और मेंटली कहाँ हो बुध्धू शायर..?"
"पता नहीं कोई अजीब सी दुनिया है ये,,
कुछ साये मेरा पीछा कर रहे है,,
कोई चीख़ रहा है,,मुझपर
बुरी तरह चिल्ला रहा है कोई..
कोई है जो मेरे शरीर को नोंच रहा है...
कोई एक लड़की है,,जो दिखने में बिल्कुल तुम्हारी ही तरह है,मुझपर हँस रही है वो जोर जोर से..."
"बात करना ही बेकार है तुमसे, ख़ुद तो पागल हो चुके है मुझे भी पागल करके छोड़ोगे.."
"छोड़ूंगा...?"
"और नहीं तो क्या,
ख़ैर ये बताओ तुमने मुझे फेसबुक,व्हाट्सअप, इंस्टा.. सबपर ब्लॉक कर रक्खा है, है ना..!"
"हाँ वो ऐसे ही बस"
"क्या प्रॉब्लम है यार तुम्हारी..?"
"ठीक है अनब्लॉक कर दूँ पर क्या तुम अपनी फोटोज उस लड़के के साथ डालना बन्द कर दोगी..? बताओ, अभी करता हूँ अनब्लॉक.."
"यार तुम जानते हो सबकुछ तो क्यों ख़ुद को तकलीफ़ दे रहे हो,,अपने कैरियर पर फोकस करो,,तुम्हे बहुत आगे जाना है,, समझते क्यों नहीं..?"
"बस यही फ़िक्र,,तुम्हारी यही फ़िक्र (लगभग चिल्लाते हुए)
बस यही आगे नहीं बढ़ने देती तुमसे मुझे,, तुम्हे पता है ये जो तुम बात बात पर मेरी फ़िक्र का दिखावा करती हो न, यही सबसे ज्यादा अखरता है..इतनी फ़िक्र है तो आ जाओ लौट कर..?"
"हेलो!!...हेलो!!!...आवाज़ नहीं आ रही, कोई मसअला है शायद!.. बाद में फोन करती हूँ"
"अब मत करना कभी फ़ोन.."
इतना कहकर मोबाइल को दीवार पर फेकते हुए,, मोबाइल चकनाचूर हो जाता है,, फिर कमरे में जोर जोर से ठहाका गूंजता है...""
  हा...हा...हा...हा.. अब ये कभी नहीं बजेगा और ना उसकी बद्तमीज़ आवाज़ पड़ेगी कानो में...
  -नितेश कुशवाह "निशु" 
NiteshKushwah88@gmail.com

Tuesday, November 21, 2017

आख़री मुलाक़ात

दीवारों का मुँह नहीं था, वो केवल मेरी बातें सुन सकती थी जवाब नहीं दे सकती थी । जवाब शायद वो जानती भी ना हो।
रह-रह कर मन के भीतर किसी परत में एक टीस उठती है , दिल के दराज़ में बंद कई बरसों का सफ़र और उस सफ़र में कुछ धुंधली ,कुछ उजली और कई गहरी काली यादें है... किसी की आवाज़ सुने हुए एक उम्र बीत गयी है और लबों पर  अरसे से ख़ामोशी की कभी न छटनें वाली धुंध है।
"आख़री मुलाक़ात" के जख़्म अब तक हरे है, खरोंच दो तो लहू निकलने लगे।
हाथ सिर्फ़ स्याह लकीरों से भरे थे, जिनमें अरसे से एक ख़ालीपन था और बाकि थी तो बस उस छुअन की ख़ुशबू जो कोई दे गया था ।
मन को सम्भाले रखना आसान नहीं था, ना किसी लिखने-पढ़ने का लालच उसे बांध सकता था; वो बार-बार उस  आख़री मुलाक़ात के लम्हों की ओर दौड़ लगा देता।

वो एक हल्की सफ़ेद रंग की चूने से पुती सपाट बेंच जैसी जगह थी , जिस पर कुछ घण्टों हमने बैठ कर बीते हुए अच्छे-बुरे पलों की "बरसी" मनाई ।

कुछ शिकायतें लबों तक आकर रुक गयी और कुछ झूठी मुस्कुराहट ये बताने के लिए की सबकुछ बहुत अच्छे से  चल  रहा है। उसकी आँखों में अब वह पहले-सा दर्द नहीं था , शायद वो आँखों में भी नक़ाब चढ़ा कर आई थी ख़ैर एक पछतावे की गंध ज़रूर आ रही थी । बातें कुछ औपचारिक ही रही होगी और ऐसा भाव कि ये सब कुछ नॉर्मल है .. मैंने भी चेहरे पर कई नक़ाब पहन रखें थे पर वे सब भी कही-न-कहीं एक पारदर्शिता लिए हुए थे।
होंठ बहुत कुछ कह देने की ज़िद में सुर्ख हुए जा रहे थे , आँखें हमेशा की तरह थोड़ी भींगी हुई..

"शायद सब कुछ कह देना चाहिए..?? सबकुछ..??
हाँ कह दो।"
"चुप करों तुम"

मैंने फिर से भिखारी मन को चुप करा दिया, मन मुझसे नाराज़ होकर बहुत दूर जाता रहा ; हफ्तों तक बस में ना रहा।
मुलाक़ात इक  झिझक में कटती गयी ।
जाते-जाते मैंने उसका हाथ पकडा ,,नहीं ज़ोर से हाथ खींचकर धीमे से कहा "अब हम कभी नहीं मिलेंगे...कभी नहीं"
जवाब में उसने भी कहा "हाँ..जानती हूँ"
आँखें बुरी तरह भीगने लगी थी, मैंने जल्दी से बहुत दूर निकल जाना ठीक समझा।
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कभी-कभी  बातों का कह देना अच्छा होता है ताकि मन को एक उम्र तक उनका बोझ ढोनें से बचाया जा सके।

-नितेश कुशवाह "निशु"

Thursday, November 9, 2017

लौट आओगी ना तुम..?

कलम दिन रात तीन उंगलियों की परिक्रमा करती है, दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया है और उँगलियों और अँगूठे में कलम थामे रखने के दबाव से स्थायी जैसा निशान पड़ गया है । ऊँगली नीली पड़ गयी है,शरीर हर जगह से टूट रहा है रात के साढ़े तिन बज रहे है। बाहर कुछ कुत्ते रो रहे है । कमरे के अंदर किताबे और तन्हाई पसरी हुई है ,, कुछ खुली कुछ बन्द किताबें । कुछ किताबें इंतज़ार में है कि उन्हें कब पढ़ा जाएगा। आँखें जवाब देने लगी है । बिस्तर पर बेतरबिन पड़ी चादर भी इन्तज़ार में है। ये शायद बहुत भारी दिन है अब तक के। सुब्ह नींद खुलने में बहुत देर हो जाती है। ये जानकर भी कि तुम्हारा "अलार्म कॉल" अब कभी नहीं आएगा, आँखें खुलती ही नहीं।
एक इंतज़ार सा रहता है।आधी रात को चाय की तलब लगती है और तुमसे बात करने की भी। पर तुम्हारा नंबर फोन से हटा चूका हूँ और दिमाग़ से भी। ख़ैर इसी तरह से रात बड़ी मुश्किल से कटती है,, किताबें तो होती ही है तुम्हारी जगह पर , शायद नहीं । तुम्हारी जगह किसी ने ली नहीं अब तक। पर जल्द ही कोई मिल जाए!!
तुम्हें लौट आना चाहिए था शायद..!
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अब वक़्त तो नहीं है पर हो सके तो लौट आओ क्योंकि कुछ चीजें सलीक़े से ही अच्छी लगती है।
जैसे मेरे साथ तुम

Sunday, November 5, 2017

तुम्हारा होना.

ठण्डी हवा का झोंका उसके नर्म हल्के गुलाबी गालों को हौले से छुकर गुज़र गया.. वो जैसे अपनी कोमल उँगलियों से उस हवा के झोंके के साथ आये अवशेष को हटाने की बड़ी प्यारी बचकानी सी कोशिश कर रही थी...
तभी उसकी इस कोशिश पर मेरी नज़र थम गयी, वो किसी छोटी सी बच्ची सा भाव लिए मेरी आँखों में देखने लगी.. मैं अपनी किसी चोरी पकड़े जाने का भाव लिए अपराधबोध महसूस करता हुआ बस मुस्कुरा दिया... नहीं मुस्कुराया नहीं हँस दिया धीमे से।

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कभी कभी तुम्हारे असल में होने से ज्यादा अच्छा तुम्हारे होने का एहसास होता है..!
-नितेश कुशवाह

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...