Translate

Thursday, March 10, 2022

स्व से पलायन: एक आत्ममंथन

घर में रहते हुए यूँ तो लगता था कि अपनो के  आस-पास हैं, पर अपने आप से दूर होकर कैसा लगता है ये सिर्फ मुझे घर ही ठीक-ठाक तरह से महसूस होता था। मैं घर में तीसेक दिन रहता तो मुझे जैसे घर काटने को दौड़ता था। मेरा बचपन से ही कहीं भाग जाने का मन करता था, पर मैं कभी ज़्यादा दिन तक के लिए कहीं भाग नहीं पाया।

भाग कर जाना कहाँ ? शायद ये सवाल मैं कभी हल नहीं कर पाया।

दरअसल मैं अपने आप से भागना चाहता रहा हूँ।वये मुझे बिल्कुल ठीक तरह से तब पता चला जब मैंने अज्ञेय से सम्बन्धित या अज्ञेय का लिखा हुआ “स्व से पलायन ...” जैसा कुछ पढ़ा। कई दिनों तक मैं उसके आकर्षण में रहा।

फिर एकाएक एक दिन मुझ पर खुला कि यही तो मैं चाहता था/हूँ।  स्व से पलायन....ख़ुद से भागना..

मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता था.ख़ुद का मतलब जो मैंने अब तक जीया। मैं वर्तमान में तो रहना चाहता था , मगर ऐसा वर्तमान जहाँ भूत ना हो, बिल्कुल भी नहीं।

सबके अपने-अपने पिंजरे होते हैं, पर सब आज़ाद होना नहीं चाहते।

मेरे लिए मेरा पिंजरा मेरा अतीत था या हमेशा से रहा है।मैं अतीत से भागना भी इसलिए चाहता रहा हूँ कि मुझे वो सब ग़लतियाँ नहीं करनी थी जो मैंने की। जिसका एक बड़ा परिणाम मैंने भोगा। पर इतनी सारी गलतियाँ सुधारना मुश्किल होता, उससे आसान होता सारे अतीत को मिटा देना।

 स्व से पलायन मतलब  क्या? ये ठीक-ठीक मेरे लेखन की पकड़ में नहीं आता। लेकिन मैं ख़ुद को अपने से बाहर महसूस करना कैसा होता है. बिल्कुल वैसा महसूस करना चाहता हूँ। एक-दो बार शायद मैंने महसूस किया भी है।वैसे ही मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ ख़ुद को सामने वाले पेड़ की डाली पर बैठी चिड़िया जैसे मुझको देख रही है उस निगाह से।

 अक्सर मैं जब बैठता हूँ कहीं चाय की टपरी पर तो वहाँ से जाते हुए 2-3 बार मुड़कर देखता हूँ कि कुछ छूट तो नहीं गया। दरअसल मैं ख़ुद को कहीं थोड़ा-सा छोड़ आता हूँ या भूल आता हूँ शायद। मेरे जिस छूटे हुए हिस्से को मैं पलटकर देखता हूँ 2-3 बार, वो दिखाई नहीं देता, शायद उड़ जाता है हवा में या ब्रम्हांड में चले जाता हो पता नहीं। लेकिन कुछ तो छूटता ज़रुर है।

कभी-कभी चलते चलते मैंने महसूस किया है कि मैं रेत की तरह कुछ-कुछ रिसता जा रहा हूँ। ठीक-ठीक रेत की तरह भी नहीं थोड़ी कम गति से, लेकिन रिसता जाता हूँ।

शायद ये मेरा अतीत ही हो जो जगह-जगह मुझसे कहीं छूट जाता है, जो रिसता जाता है। असल में हम जैसे लोग अभावों में जिए हुए लोग हैं। जो कुछ हमने ख़राब भोगा उसे हम छोड़ देना चाहते हैं। कहीं किसी गहरी खाई में फेंक देना चाहते हैं। हम हमारे हिस्से की खुशियों पर ज़्यादा दिन ख़ुश नहीं रह पाते।हम दुखो को ढोने के इतने आदि हो चुके हैं कि अगर थोड़े-थोड़े अवकाश के बाद पीड़ा ना नज़र आये तो हम उसके कारण खोजने लगते हैं।

हम अपने अभावों से भाग जाना जाता हैं, अपने अतीत से भाग जाना चाहते हैं, हम भूत से भागना चाहते हैं, वर्तमान में हो रही घटनाओं के प्रति उदासीन रहकर हम वर्तमान, भविष्य सब से भाग जाना चाहते हैं। हम थके हुए लोग हैं। पर एक दिन हम भाग कर लौट आएंगे वो जो लोग भटकते हुए नाकाम हो जाते हैं और घर लौट आते हैं उनकी तरह। अभी आवारागर्दी भली लग रही है। भागने में आनंद है।

-नितेश 

१० मार्च २०२२



           


No comments:

Post a Comment

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...