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Thursday, November 9, 2017

लौट आओगी ना तुम..?

कलम दिन रात तीन उंगलियों की परिक्रमा करती है, दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया है और उँगलियों और अँगूठे में कलम थामे रखने के दबाव से स्थायी जैसा निशान पड़ गया है । ऊँगली नीली पड़ गयी है,शरीर हर जगह से टूट रहा है रात के साढ़े तिन बज रहे है। बाहर कुछ कुत्ते रो रहे है । कमरे के अंदर किताबे और तन्हाई पसरी हुई है ,, कुछ खुली कुछ बन्द किताबें । कुछ किताबें इंतज़ार में है कि उन्हें कब पढ़ा जाएगा। आँखें जवाब देने लगी है । बिस्तर पर बेतरबिन पड़ी चादर भी इन्तज़ार में है। ये शायद बहुत भारी दिन है अब तक के। सुब्ह नींद खुलने में बहुत देर हो जाती है। ये जानकर भी कि तुम्हारा "अलार्म कॉल" अब कभी नहीं आएगा, आँखें खुलती ही नहीं।
एक इंतज़ार सा रहता है।आधी रात को चाय की तलब लगती है और तुमसे बात करने की भी। पर तुम्हारा नंबर फोन से हटा चूका हूँ और दिमाग़ से भी। ख़ैर इसी तरह से रात बड़ी मुश्किल से कटती है,, किताबें तो होती ही है तुम्हारी जगह पर , शायद नहीं । तुम्हारी जगह किसी ने ली नहीं अब तक। पर जल्द ही कोई मिल जाए!!
तुम्हें लौट आना चाहिए था शायद..!
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अब वक़्त तो नहीं है पर हो सके तो लौट आओ क्योंकि कुछ चीजें सलीक़े से ही अच्छी लगती है।
जैसे मेरे साथ तुम

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