कलम दिन रात तीन उंगलियों की परिक्रमा करती है, दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया है और उँगलियों और अँगूठे में कलम थामे रखने के दबाव से स्थायी जैसा निशान पड़ गया है । ऊँगली नीली पड़ गयी है,शरीर हर जगह से टूट रहा है रात के साढ़े तिन बज रहे है। बाहर कुछ कुत्ते रो रहे है । कमरे के अंदर किताबे और तन्हाई पसरी हुई है ,, कुछ खुली कुछ बन्द किताबें । कुछ किताबें इंतज़ार में है कि उन्हें कब पढ़ा जाएगा। आँखें जवाब देने लगी है । बिस्तर पर बेतरबिन पड़ी चादर भी इन्तज़ार में है। ये शायद बहुत भारी दिन है अब तक के। सुब्ह नींद खुलने में बहुत देर हो जाती है। ये जानकर भी कि तुम्हारा "अलार्म कॉल" अब कभी नहीं आएगा, आँखें खुलती ही नहीं।
एक इंतज़ार सा रहता है।आधी रात को चाय की तलब लगती है और तुमसे बात करने की भी। पर तुम्हारा नंबर फोन से हटा चूका हूँ और दिमाग़ से भी। ख़ैर इसी तरह से रात बड़ी मुश्किल से कटती है,, किताबें तो होती ही है तुम्हारी जगह पर , शायद नहीं । तुम्हारी जगह किसी ने ली नहीं अब तक। पर जल्द ही कोई मिल जाए!!
तुम्हें लौट आना चाहिए था शायद..!
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अब वक़्त तो नहीं है पर हो सके तो लौट आओ क्योंकि कुछ चीजें सलीक़े से ही अच्छी लगती है।
जैसे मेरे साथ तुम।
नमस्कार! मेरी यादों के इस डिजिटल झरोखे में आपका स्वागत है। दैनिक दिनचर्या में जब कभी यादों की दराज से कुछ स्मृतियाँ बाहर निकलकर झाँकने लगती हैं, तो मैं भी कुछ देर उन्हें गले लगाकर पुरानी कोई बात कहने सुनने लगता हूँ। बस उन्हीं किस्सों के आस-पास कहीं यादों,बातों, कल्पनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश ये ब्लॉग है। शायद मेरी कोई याद आपकी भी किसी याद जैसा हो।
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Thursday, November 9, 2017
लौट आओगी ना तुम..?
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ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को ये भी हो सकता है...
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ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को ये भी हो सकता है...
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घर में रहते हुए यूँ तो लगता था कि अपनो के आस-पास हैं, पर अपने आप से दूर होकर कैसा लगता है ये सिर्फ मुझे घर ही ठीक-ठाक तरह से महसूस होता था।...
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