उससे मिलना और बिछड़ जाना पिछले किसी जन्म में किये गए सबसे बड़े पाप की सज़ा थी..। ये सोचते हुए मैं नियति को महसूस किया करता ।
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रिश्तों में लिपुलेख दर्रे जितनी दरारें पड़ चुकी थी। दुनिया भर का प्रेम भी अब उन दरारों को भरने में ना-काफ़ी था।
हमने कई बार आख़िरी मुलाक़ात की..अब उससे अकेले में जब भी मिलना होता था तो बात नहीं होती थी कुछ भी। सबकुछ जाना जा चुका था या मिलने के पहले पूछा जा चुका होता था..होती थी बस एक चुप्पी की जगह दोनों के ख़ालीपन के बीच।
आसपास बहुत लोग नहीं होते थे..होते भी थे तो अपरिचित।
कई दिनों के बाद एक उदासी भरी शाम को और ज़्यादा उदास बनाने के लिए मुलाक़ात का वक़्त और जगह तय हुई थी। कॉफ़ी आर्डर की गयी..दोनों चुपचाप नज़रे चुराकर देखते एक-दूसरे को।
बैकग्राउंड में हल्की धीमी आवाज़ में सुरीली ग़ज़ल "होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है" प्ले हो रही थी।
उसकी ख़ूबसूरती ने फिर से प्यार में गिरने को मजबूर किया जब ग़ज़ल के एक मिसरे "आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है" के साथ मेरी नज़र उसके कॉफ़ी लगे हुए होंठो पर अटक गयी।
बीच-बीच में कुछ औपचारिक बातें। आसपास प्रेम में डूबे जोड़े। मस्ती करते कुछ कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ।
कैफ़े में लगी पेंटिंग्स को देखते हुए बीच-बीच में मन भारी हो जाता। कभी ये सोचकर कि अब कभी मिलना नहीं होगा। अब वो पहले सा एहसास मर चुका था। जब घण्टों बैठ कर दोनों बतियाते रहते थे। अब लगता है कि जेल में आ गए है.. मिलने ही नहीं आना था। मैं मन ही मन मिलने के लिए "ख़राब" किये वक़्त और पैसे का हिसाब जोड़ने लगता। सिगरेट पीने की तलब लगती। होंठ सूखने लगते। बड़ी मुश्किल से पर्स की तरफ हाथ जाता और एक बिसलेरी बुलाई जाती।
फिर एक बार क़ैदखाने में फ़िज़ूल की बातें और चुप्पी का सिलसिला शुरू होता। उसके माथे की सिलवटें बताती कि उसे किसी पुराने दोस्त से मिलना जाना होता था। मुझे किसी "मानाकि" वाली गर्लफ्रेंड के साथ डेट पर।
दोनों बातें ख़त्म होने का इशारा अपनी घड़ी देखकर करते एक-दूसरे को।
कैश काउंटर पर पेमेंट किया जाता और अपनी-अपनी राह जाने से पहले कहते कि बहुत अच्छा लगा मिलकर।
हाँ जाते-जाते मैंने उससे ये भी कहा कि मैंने तुमसे प्रेम किया ही नहीं कभी ।
-नितेश कुशवाह "निशु"