Translate

Friday, April 13, 2018

उदासी भरी शाम..!!

उससे मिलना और बिछड़ जाना पिछले किसी जन्म में किये गए सबसे बड़े पाप की सज़ा थी..। ये सोचते हुए मैं नियति को महसूस किया करता ।
****
रिश्तों में लिपुलेख दर्रे जितनी दरारें पड़ चुकी थी। दुनिया भर का प्रेम भी अब उन दरारों को भरने में ना-काफ़ी था।

हमने कई बार आख़िरी मुलाक़ात की..अब उससे अकेले में जब भी मिलना होता था तो बात नहीं होती थी कुछ भी। सबकुछ जाना जा चुका था या मिलने के पहले पूछा जा चुका  होता था..होती थी बस एक चुप्पी की जगह दोनों के ख़ालीपन के बीच।
आसपास बहुत लोग नहीं होते थे..होते भी थे तो अपरिचित।

कई दिनों के बाद एक उदासी भरी शाम को और ज़्यादा उदास बनाने के लिए मुलाक़ात का वक़्त और जगह तय हुई थी। कॉफ़ी आर्डर की गयी..दोनों चुपचाप नज़रे चुराकर देखते  एक-दूसरे को।

बैकग्राउंड में हल्की धीमी आवाज़ में सुरीली ग़ज़ल "होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है" प्ले हो रही थी।
उसकी ख़ूबसूरती ने फिर से प्यार में गिरने को मजबूर किया जब ग़ज़ल के एक मिसरे  "आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है" के साथ मेरी नज़र उसके कॉफ़ी लगे हुए होंठो पर अटक गयी।

बीच-बीच में कुछ औपचारिक बातें। आसपास प्रेम में डूबे जोड़े। मस्ती करते कुछ कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ।
  कैफ़े में लगी पेंटिंग्स को देखते हुए बीच-बीच में मन भारी हो जाता। कभी ये सोचकर कि अब कभी मिलना नहीं होगा। अब वो पहले सा एहसास मर चुका था। जब घण्टों बैठ कर दोनों बतियाते रहते थे। अब लगता है कि जेल में आ गए है.. मिलने ही नहीं आना था। मैं मन ही मन मिलने के लिए "ख़राब" किये वक़्त और पैसे का हिसाब जोड़ने लगता। सिगरेट पीने की तलब लगती। होंठ सूखने लगते। बड़ी मुश्किल से पर्स की तरफ हाथ जाता और एक बिसलेरी बुलाई जाती।
फिर एक बार क़ैदखाने में फ़िज़ूल की बातें और चुप्पी का सिलसिला शुरू होता। उसके माथे की सिलवटें बताती कि उसे किसी पुराने दोस्त से मिलना जाना होता था। मुझे किसी "मानाकि" वाली गर्लफ्रेंड के साथ डेट पर।
दोनों बातें ख़त्म होने का इशारा अपनी घड़ी देखकर करते एक-दूसरे को।
कैश काउंटर पर पेमेंट किया जाता और अपनी-अपनी राह जाने से पहले कहते कि बहुत अच्छा लगा मिलकर।

हाँ जाते-जाते मैंने उससे ये भी कहा कि मैंने तुमसे प्रेम किया ही नहीं कभी
-नितेश कुशवाह "निशु"

Thursday, April 12, 2018

मन का फ्लैशबैक

*मन का फ्लैशबैक*
by-- नितेश कुशवाह
special thanks for ending point-- ख़ुशबू मालवीया दी
*****
''तू कब से मर गया है मेरे भीतर,
मैं तेरी लाश ख़ुद में खोजता हूँ।''

बाद उसे खोने के कुछ बचा नहीं। किस्मत की लकीरे जैसे हाथों से गिर चुकी थी। सब ख़त्म होता जा रहा था। उदासी बदन से लिपटी रहती थी।
___________
बरसात के दिन थे। शाम का वक़्त 4-5 बजे के क़रीब। ख़ूब बारिश हो रही थी। मैंने अपने पड़ोसी से छाता माँगा और बस स्टॉप की तरफ निकल पड़ा। बहुत जल्दी-जल्दी तेज़कदमी के साथ। दुरी 2 km पैदल जाने में 15 मिनट लगते थे। पर किसी की फ़िक्र होती है तो आप सड़को पर हद तक पानी भरा होने के बावजूद भी 15 मिनट का सफर 6-7 मिनट में तय कर सकते है। परिस्तिथियां प्रतिकूल होने के बावजूद। बस स्टॉप पर पहुचने पर जिसे लेने आया था, जिसकी फ़िक्र थी उसे ज्यो हो फ़ोन लगाने के लिए  मोबाइल निकाला तो एकाएक कुछ याद आया।

दिमाग चुप एकदम। आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। किसी दीवार के सहारे खड़े रहने की कोशिश की।
कभी-कभी हमारा दिल-ओ-दिमाग कुछ सच्चाइयों को स्वीकार नहीं कर पाता। हम हमेशा वैसे ही बने रहना चाहते है। हम अपने झूठ के मयारों को तोड़ नहीं पाते।

पिछली बारिश छाता लेकर उसे लेने आया करता था इस स्टॉप पर ताकि वो भीग ना जाए।
याद आया कि जिसके ख़यालो में पागल होकर यहाँ आया था वो शहर छोड़कर एक साल पहले जा चुकी है।
अबकी बारिश आँसुओं की भी बहा ले गयी अपने साथ...
*****
ख़्वामख़्वाह की ये बारिश अब तो बदमिजाज़ सी लगती है,
शबनम सी गिरती ये बूंदें भी
मेरे बदन पर अब तेज़ाब सी लगतीं हैं, वो कहीं दूर बैठी है फिर भी क्यों मेरे पास सी लगती है ....

Monday, April 2, 2018

हारा हुआ आदमी

तुम्हारी ग़ुस्से भरी नाराज़गी से लगता है कि हममें कोई रिश्ता अब भी ज़िंदा है।

भरी दोपहरी।मार्च के आख़िरी दिन। बीमार करने पर उतारू धूप और सन्नाटे में चीख़ती तपन।
दोपहर का एक बजा होगा शायद।
किसी का साथ पाने की ज़िद में पाग़ल हुआ मन। और मेहनत करता शरीर। उस पर रूठी हुई नियति कि मानो चिड़ा रही हो। हर जगह हँसते पहचान के कुछ लोग।
whatsapp पर लगातार ब्लिंक करते msg।
एक हारा हुआ आदमी.....
आसपास से गुज़रते हुए मुसाफ़िर।

एकाएक एक अधेड़ आदमी सड़क पार करते हुए सड़क पर आ रहे ट्रक से जा टकराया। ग़लती ट्रक ड्राईवर की नहीं थी। आदमी की भी नहीं। जैसा नियति ने चाहा वैसा हुआ। ख़ैर है कि उसको बाहरी चोट लगी थी । बाहरी चोट में बचना आसान होता है, मन की चोट के मुक़ाबले।
अचानक याद आ धमका कि ऐसे ही कभी मैं अपना अच्छा वक़्त पार करते हुए तुम्हारी टक्कर की भेंट चढ़ा था। बहुत सी अंदरुनी चोटें मन में पड़ गयी। धीरे-धीरे जब सम्भला तो तुम्हे अपना हमराह बना पाया । हालाँकि कोई कॉन्ट्रैक्ट साइन नहीं किया था। 
वक़्त के साथ बेतरबीती ख़त्म होने लगी। सबकुछ सलिखें से होने लगा। निकल पड़ा ख़ुद को सभ्य और क़ाबिल बनाने के सफर में। आगे के लिए कोई वादा नहीं। वादा अक्सर काबिल लोग करते है , नालायक लोग सरप्राइज देने का सोचते रहते है।
वक़्त बीता।
महीना-दो महीना-एक साल-डेढ़ साल।
काबिलियत जैसी किसी शै का दूर- दूर तक पता नहीं।
एक दिन सब ठीक होने वाला था कि...ख़ैर ग़लती तुम्हारी नहीं थी। तुमने 'आईने' वाला रवैया अपना लिया। धीरे-धीरे तुम्हे एहसास हुआ या यूँ कहे कि हालात मेरे हक़ में होने लगे।
मुझे शौहरत मिलने लगी। सबकुछ ठीक से चलने ही लगा था। कबिलियत के बहुत पास। एकदम पास। 3-4 हाथ की दुरी।
कि फिर वही मनहूसियत।

ख़ैर...तुम्हारी ग़लती नहीं है कोई भी। नियति ने मुँह फेर लिया हमेशा के लिए। एक-एक कर हर उम्मीद टूटती गयी सब कुछ ठीक होने की। मैं कुछ नहीं कर पाया कभी सिवा  तुम्हारे साथ रोने के। एक छोटी सी ख़ुशी मैं दे सकता था , पर फिर से वही। साली क़िस्मत। शायद मैं बहुत कुछ बदल भी सकता था। पर नियति के   इशारे देर से समझा। और एक-एक कर सबकुछ तुम्हारे हाथों से जाता गया। अब करने को कुछ नहीं है बस एक और उम्मीद के। उदास मत हो दिन फिरेंगे किसी दिन। हम जीतेंगे देख लेना। बस तुम हिम्मत मत हारो। कुछ दिन और। अभी बस माफ़ नहीं कर पा रहा ख़ुद को। तुमसे किया वादा गूँज रहा है अब भी। बाकि कोई आवाज़ कहीं से नहीं आ रही।
सब चुप हो गए।

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...