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Thursday, April 12, 2018

मन का फ्लैशबैक

*मन का फ्लैशबैक*
by-- नितेश कुशवाह
special thanks for ending point-- ख़ुशबू मालवीया दी
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''तू कब से मर गया है मेरे भीतर,
मैं तेरी लाश ख़ुद में खोजता हूँ।''

बाद उसे खोने के कुछ बचा नहीं। किस्मत की लकीरे जैसे हाथों से गिर चुकी थी। सब ख़त्म होता जा रहा था। उदासी बदन से लिपटी रहती थी।
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बरसात के दिन थे। शाम का वक़्त 4-5 बजे के क़रीब। ख़ूब बारिश हो रही थी। मैंने अपने पड़ोसी से छाता माँगा और बस स्टॉप की तरफ निकल पड़ा। बहुत जल्दी-जल्दी तेज़कदमी के साथ। दुरी 2 km पैदल जाने में 15 मिनट लगते थे। पर किसी की फ़िक्र होती है तो आप सड़को पर हद तक पानी भरा होने के बावजूद भी 15 मिनट का सफर 6-7 मिनट में तय कर सकते है। परिस्तिथियां प्रतिकूल होने के बावजूद। बस स्टॉप पर पहुचने पर जिसे लेने आया था, जिसकी फ़िक्र थी उसे ज्यो हो फ़ोन लगाने के लिए  मोबाइल निकाला तो एकाएक कुछ याद आया।

दिमाग चुप एकदम। आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। किसी दीवार के सहारे खड़े रहने की कोशिश की।
कभी-कभी हमारा दिल-ओ-दिमाग कुछ सच्चाइयों को स्वीकार नहीं कर पाता। हम हमेशा वैसे ही बने रहना चाहते है। हम अपने झूठ के मयारों को तोड़ नहीं पाते।

पिछली बारिश छाता लेकर उसे लेने आया करता था इस स्टॉप पर ताकि वो भीग ना जाए।
याद आया कि जिसके ख़यालो में पागल होकर यहाँ आया था वो शहर छोड़कर एक साल पहले जा चुकी है।
अबकी बारिश आँसुओं की भी बहा ले गयी अपने साथ...
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ख़्वामख़्वाह की ये बारिश अब तो बदमिजाज़ सी लगती है,
शबनम सी गिरती ये बूंदें भी
मेरे बदन पर अब तेज़ाब सी लगतीं हैं, वो कहीं दूर बैठी है फिर भी क्यों मेरे पास सी लगती है ....

2 comments:

  1. वाह भाई निशु बहुत खूब
    Am impressed

    ReplyDelete

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...