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Sunday, November 11, 2018

मैं और दूसरा मैं .

रात के ढाई बजे दरवाज़े पर दस्तक होती है...टक-टक-टक-टक

अचानक याद आता है कि मेरे कमरे में एक दरवाज़ा है जो मुझे क़ैद करके अपना होना भुला देता है। मैं दरवाज़े की तरफ़ नहीं बड़ता हूँ इस वक़्त कौन आया होगा, मेरा धोका होगा।
मैं अपने चारों और कुछ किताबों को रखकर दुनिया से बहुत दूर निकल चुका होता हूँ।
एक शब्द मन में आता है.....प्यास
मैं मटके की तरफ़ बढ़ता हूँ, वहाँ रखे हुए आईने पर नज़र पड़ती है। चेहरे को छू कर देखता हूँ, बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी और कई सारी झुर्रियां। याद नहीं आता पिछली बार कब ठीक से संवारा था ख़ुद को। तुम्हारे जाने और फिरसे लौट आने के बीच कई बार ख़ुद से झगड़ा हुआ और फिर एक नाउम्मीदी हो गयी ख़ुद से। तबसे ख़ुद की तलाश में हूँ। एक बच्चा जिसे भीड़ से डर लगता था, अब भीड़ के सामने खड़ा होता है तो लोग झूम जाते हैं। पर वो बच्चा सच में खो गया है। उसका होना ये नहीं था कि उसे नाम मिले अख़बारों और दुनिया से पहचान मिले, वो लोगों में उस बच्चे को ढूंढ रहा है जो उसने कहीं अनजाने में पीछे छोड़ दिया।
तुम्हारे जाने और लौट आने तक के सफ़र में उसने ख़ुद को कहीं रख दिया और भूल गया वो जगह जहाँ रख छोड़ा था।

सामने दीवार पर कुछ चुनिंदा तस्वीरें लगी हैं, जिनमें ज़िन्दगी की कई सच्चाइयाँ एक शुरुआती सफ़र उम्मीदों से भरा हुआ, वक़्त के पैरों के निशान जिनमें वक़्त से मिली हुई दुत्कार,, और एक उदास सूखा हुआ पेड़ है। दीवारों पर सीलन लग चुकी है बारिश की वजह से।
ठीक वैसी जैसी मन की दीवारों पर है।
बाकि सब बेजान।

अचानक दरवाज़े पर फ़िर दस्तक होती है इस बार मैं उठकर जाता हूँ दरवाज़ा खोलता हूँ और सामने ख़ुद को पाता हूँ।
मैं अपना स्वागत करके ख़ुद को ख़ुद के पास बिठाता हूँ। मैं और पुराना मैं एक-दूसरे को बहुत ग़ौर से देखते हैं।
मैं दूसरे मैं को अपनी एक ग़ज़ल सुनाता हूँ वो ''मैं'' कोई ख़ास जवाब नहीं देता कहता है- तुम अब वो मैं नहीं रहे, मैं तुमसे मिलने आया था, मुझे पता था तुम मुझे ढूंढ रहे हो'' और अचानक उठकर बाहर निकल जाता है, उसे रोकता नहीं हूँ । मैंने उसे जाने दिया फिर बाहर गया, उसे आवाज़ लगाई,, सुनों तुम कहाँ रहने लगे आजकल।
वो ''मैं'' पलटकर कहता है
'' मैं कुछ सालों से तो .......''

अचानक अलार्म बजती है और नींद टूटती हैं।।

-न से नितेश

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