बहुत कच्ची उम्र में लिखी गयी कविताएँ एक दिन सीधे बूढ़ी हो जाते हैं। वे जवान नहीं होती। एकाएक बाल पककर सफेद हो जाते हैं उनके।
और वो माँगने लगती हैं जवाब कि क्यूँ नहीं आये उनके जवानी के दिन। वो होती रहती हैं शर्मिंदा, तरतीब से कहीं गयी ग़ज़लों और कविताओं के बीच। उन्हें पटक दिया जाता है पुराने से कभी ना इस्तेमाल करने वाले नोटपैड में या ज़्यादा से ज़्यादा उस डायरी को रख दिया जाता है उस कोने में जहाँ से कौन उन्हें आसानी से ढूंढ ना पाए। उन कविताओं पर जमती रहती है धूल, लाइब्रेरी के उस वृद्धाश्रम में। उन्हें बार बार बेइज्जत किया जाता है कि तुममें व्याकरण दोष हैं, मात्राओं की अशुद्धियां हैं। जबकि उनमें होते हैं अपार अनुभव- अपार भावनाएं।
हा.. हा.. हा...
बूढ़ों की भावनाओं की कद्र कौन करता है
पुरानी कविताएँ की कद्र कौन करता है।
-नितेश