Translate

Thursday, March 24, 2022

एंजायटी के दिनों के नोट्स - १

कोई ग़ज़लें सुनाएगा तो मेरी याद आएगी..सुनोगी जब कोई नगमा  तो मेरी याद आएगी.
के जब आएगी मेरी याद तो सोने नहीं देगी, अपनी बाँहों के तकिये से भी मेरी याद आएगी.
                                                                                ******
तुम नहीं थी तब जब तुम्हारी सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी. जब इंतज़ार था तब नहीं आयी तुम।
 बुरे दिनों की बुरी बात - ये नहीं थी कि दिन बुरे हैं- क्या थी जानती हो?
बुरे दिनों की बुरी बात ये थी कि साथ देने के लिए तुम नहीं थी। मौजूद ही नहीं बल्कि मन से भी नहीं। 
अच्छा हुआ बुरे दिन बीत गए.. वक़्त के साथ अच्छा ये भी होता रहा कि तुम्हारी आदत भी कम हो गयी और मैंने अकेले अच्छे वक़्त तक आने का अपना सफ़र पूरा किया।
ठीक हुआ कि इस अच्छे दिनों तक आने के सफ़र में तुम साथ नहीं रही, नहीं तो मुझे उम्र भर लगता कि मैं तुम्हारे कारण नई सुबह देख पाया। 
जो होता है अच्छे के लिए होता है।
                                                                                 ******
मन रमता जोगी है. दुनिया भर की बातें सोचता है  पर दुनिया के छल कपट में ठगा ही जाता है। जब कभी चालक बनने की कोशिश की, दोस्तों ने परायेपन से पूरा नाम लेकर कहा (अपनेपन में बस निशु बुलाते हैं ) ,
“नितेश कुशवाह तुम ज्यादा बनने लगे हो “
फिर से जब पहले जैसा रहने लगा तो सबने कहा कि बचपना छोड़ो भी, बड़े हो जाओ.
परिणाम ये हुआ कि मन में  उठने वाली बातें मन में दबने लगी.
समय के साथ बचपना छूटा भी. कई कई बातें होती जिनके बारें में लगता कि किसी करीबी दोस्त को बताएँ, पर फिर मन नहीं किया. कि उन बातों के वाक्य-विन्यास भी ना थे ठीक से. अब ऐसी बातें कैसे बताई जाये. और कोई क्या सोचेगा अजीब बातों को सुनकर.

एक वक़्त पर दिमाग में अजीब अजीब कई कई बातें एक साथ चलने लगी/ या उठने लगी . 
शायद उठने ही लगी होगी.. खैर ठीक ठीक मेरी लेखनी की पकड़ में नहीं आता. 
वो भाव महसूस किया जा सकता है बार बार, पर एक बार ठीक से लिखा नहीं जा सकता.बिल्कुल ऐसे जैसे कई चीटियाँ चल रही हो दिमाग में. 
 
                                                                             ******
जिन दिनों तुमसे बात नहीं होती थी, दुनिया जैसे काटने को दौड़ती थी. बात होने के दिनों में भी मैं कुछ ख़ास बात करता नहीं था. किसी से फोन पर बात करने का शऊर मुझे आज तक ना आया. बातें मैंने भी ख़ूब की पर जैसे नीरस सबकुछ.
 ह्म्म्म…हाँ….अच्छा..ठीक..क्यूँ… इससे आगे मुझे कुछ सुझा ही नहीं कभी..मेरी एक दोस्त थी.उससे जब भी बात होती. बात शुरू होने के 1 मिनट बाद हम एकदूसरे से कहने लगते कि कोई टॉपिक निकालो. ऐसे करके 1 मिनट बात और होती.फिर दोनों तरफ से बाय बोल दिया जाता. हाँ पर बात करते रहने से एक निबाह बना रहता या सब ठीक चल रहा हो ऐसा अंदेसा बना रहता. बात चाहे १० मिनट ही हो पर होनी चाहिए. इन दिनों जो उससे बात होती भी तो वैसी नहीं हैं. वो अनौपचारिकता बातों में नहीं है, जिनसे सब ठीक चलने का अंदेसा हो. बार बार मन की गांठ पड़ने से भी मन के रिश्ते वैसे नहीं रहते. फिर सब कुछ ठीक किया भी जा सकता है. पर मुझे शायद कुछ ठीक करने से ज़्यादा सुख उसकी बातें करने में ( यहाँ  लिखने में पढ़ा जाये ) आता है.
                      हाँ अब भी बातें तुमसे नहीं होती, अब भी दुनिया काटने को दौड़ती हो पर अब चमड़ी मजबूत हो गयी है. कि फ़र्क पड़ता नहीं अब कुछ भी.. हाँ बताना ये भी था कि अब भी अपनी पसंद की ही कॉलर ट्यून है.
                                                                             ******
          
                पता नहीं याद के इस टुकड़े को यहाँ रखना ठीक है या नहीं. क्यूँकी इसका कोई भी सिरा  एन्जआयटी से नहीं जुड़ा है. ये जुड़ा है अलगाव  से, बिछड़ने से नहीं, बिछड़ना एक बड़ा भारी शब्द है जो अपने इस्तमाल के साथ बड़ा भारी  दुःख लेकर आता है.. इसलिए कहा कि ये अलगाव से जुड़ा है.. तो उससे अलग होने के बाद ऐसा कोई ख़ास दुःख नहीं आया जो किसी के बिछड़ने से आता है. जैसे हफ्तों भूख ना लगना, प्यास की सुध बुध ना रहना. किसी काम में मन ना लगना. मौसम की जानकारी ना रहना,ये सब सामान्य चीज़े बराबर चलती रही. नियत वक़्त पर, जिंदगी चलती रही वैसी ही जैसी चल रही थी. फ़र्क आया था वक़्त के उस हिस्से में जो उसके नाम रहा करता था.. वो  थोड़ा सा समय का टुकड़ा जैसे उस पर फफूंद उग आई थी या जैसे सीलन लग जाने पर कमरे की दीवार बार बार ध्यान खींचती है अपनी दीन दुर्दशा पर वैसे दशा में आ गया था . उस समय के खालीपन में एक स्थिरता थी, एक ऊब और एक बहुत खिंचापन था.
सोचता हूँ वो क्या था, जो अब तक भी बराबर बना हुआ है.किसी के जाने से सारा सब ठीक हो जाता है या प्रिय ना हो, मन  से उतर गया हो तो भुलाया  जा सकता है लेकिन वो जो वक़्त होता है किसी हिस्से का उसका एक अरसे तक ठीक ठीक ठिकाना नहीं लगता.. 
हम लोग उस समय का उपयोग किसी ऐसी जगह जरुर कर सकते हैं जिसमें दिमाग से ख़ूब ख़ूब काम लिया जा सके. बाकि एक दिन ये भी ठीक हो ही जाएगा. ऐसी उम्मीद तो कर ही सकते हैं. हैं ना ?   

*****
नितेश 
19-3-2022

Thursday, March 10, 2022

स्व से पलायन: एक आत्ममंथन

घर में रहते हुए यूँ तो लगता था कि अपनो के  आस-पास हैं, पर अपने आप से दूर होकर कैसा लगता है ये सिर्फ मुझे घर ही ठीक-ठाक तरह से महसूस होता था। मैं घर में तीसेक दिन रहता तो मुझे जैसे घर काटने को दौड़ता था। मेरा बचपन से ही कहीं भाग जाने का मन करता था, पर मैं कभी ज़्यादा दिन तक के लिए कहीं भाग नहीं पाया।

भाग कर जाना कहाँ ? शायद ये सवाल मैं कभी हल नहीं कर पाया।

दरअसल मैं अपने आप से भागना चाहता रहा हूँ।वये मुझे बिल्कुल ठीक तरह से तब पता चला जब मैंने अज्ञेय से सम्बन्धित या अज्ञेय का लिखा हुआ “स्व से पलायन ...” जैसा कुछ पढ़ा। कई दिनों तक मैं उसके आकर्षण में रहा।

फिर एकाएक एक दिन मुझ पर खुला कि यही तो मैं चाहता था/हूँ।  स्व से पलायन....ख़ुद से भागना..

मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता था.ख़ुद का मतलब जो मैंने अब तक जीया। मैं वर्तमान में तो रहना चाहता था , मगर ऐसा वर्तमान जहाँ भूत ना हो, बिल्कुल भी नहीं।

सबके अपने-अपने पिंजरे होते हैं, पर सब आज़ाद होना नहीं चाहते।

मेरे लिए मेरा पिंजरा मेरा अतीत था या हमेशा से रहा है।मैं अतीत से भागना भी इसलिए चाहता रहा हूँ कि मुझे वो सब ग़लतियाँ नहीं करनी थी जो मैंने की। जिसका एक बड़ा परिणाम मैंने भोगा। पर इतनी सारी गलतियाँ सुधारना मुश्किल होता, उससे आसान होता सारे अतीत को मिटा देना।

 स्व से पलायन मतलब  क्या? ये ठीक-ठीक मेरे लेखन की पकड़ में नहीं आता। लेकिन मैं ख़ुद को अपने से बाहर महसूस करना कैसा होता है. बिल्कुल वैसा महसूस करना चाहता हूँ। एक-दो बार शायद मैंने महसूस किया भी है।वैसे ही मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ ख़ुद को सामने वाले पेड़ की डाली पर बैठी चिड़िया जैसे मुझको देख रही है उस निगाह से।

 अक्सर मैं जब बैठता हूँ कहीं चाय की टपरी पर तो वहाँ से जाते हुए 2-3 बार मुड़कर देखता हूँ कि कुछ छूट तो नहीं गया। दरअसल मैं ख़ुद को कहीं थोड़ा-सा छोड़ आता हूँ या भूल आता हूँ शायद। मेरे जिस छूटे हुए हिस्से को मैं पलटकर देखता हूँ 2-3 बार, वो दिखाई नहीं देता, शायद उड़ जाता है हवा में या ब्रम्हांड में चले जाता हो पता नहीं। लेकिन कुछ तो छूटता ज़रुर है।

कभी-कभी चलते चलते मैंने महसूस किया है कि मैं रेत की तरह कुछ-कुछ रिसता जा रहा हूँ। ठीक-ठीक रेत की तरह भी नहीं थोड़ी कम गति से, लेकिन रिसता जाता हूँ।

शायद ये मेरा अतीत ही हो जो जगह-जगह मुझसे कहीं छूट जाता है, जो रिसता जाता है। असल में हम जैसे लोग अभावों में जिए हुए लोग हैं। जो कुछ हमने ख़राब भोगा उसे हम छोड़ देना चाहते हैं। कहीं किसी गहरी खाई में फेंक देना चाहते हैं। हम हमारे हिस्से की खुशियों पर ज़्यादा दिन ख़ुश नहीं रह पाते।हम दुखो को ढोने के इतने आदि हो चुके हैं कि अगर थोड़े-थोड़े अवकाश के बाद पीड़ा ना नज़र आये तो हम उसके कारण खोजने लगते हैं।

हम अपने अभावों से भाग जाना जाता हैं, अपने अतीत से भाग जाना चाहते हैं, हम भूत से भागना चाहते हैं, वर्तमान में हो रही घटनाओं के प्रति उदासीन रहकर हम वर्तमान, भविष्य सब से भाग जाना चाहते हैं। हम थके हुए लोग हैं। पर एक दिन हम भाग कर लौट आएंगे वो जो लोग भटकते हुए नाकाम हो जाते हैं और घर लौट आते हैं उनकी तरह। अभी आवारागर्दी भली लग रही है। भागने में आनंद है।

-नितेश 

१० मार्च २०२२



           


ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...