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Monday, January 31, 2022

मौन में रिश्तों की बात


किसी बहुत क़रीबी से मतभेद होना कोई बहुत बड़ा विषय नहीं है.
मतभेद बड़ी आसानी से दूर किए जा सकते हैं, बस इस आसानी में जो मुश्किल आती है वो ज़िद और ईगो की है.और चीज़ें हमेशा से ख़राब नहीं होती, एक पड़ाव आता है वही आगे का फ़ैसला करता है.
बाकि तो समय है निकल जाता है और जो होता है अच्छे के लिए ही होता है.

एक छोटी सी यात्रा में हूँ. बस में एक गीत चल रहा है. गीत में पंक्तियाँ आती है-
"अगले जनम विच अल्लाह ऐसा खेल रचा के भेज़े
मैनू तू बना के भेज़े,तैनू मैं बना के भेज़े
वे फ़ेर तैनू पता लगना."
 काश ऐसी ही परिस्थितियों में अगले जन्म में हो और तू मेरी जगह हो तब शायद  तुझे एहसास हो कि मेरे दुख क्या है. मैंने कितने दंश झेले हैं. कितना सहन किया है. मेरी ज़िन्दगी कितनी मुश्किल है तेरी कितनी आसान. तुझे एहसास होगा कि मुझ पर क्या बीतती है जब तू दुनिया के सामने  कुछ और होता है और मेरे आगे कुछ.

इसका जो भाव है वो कोई ऐसी नई बात नहीं है,जो अब तक ना कही गई हो. मनुष्य ने जितना विकास किया है उसमें उसे ख़ुद का दुख दूसरे से बड़ा ही दीखता है. दूसरे की थाली में घी ज़्यादा ही दिखा है.इससे इतर दूसरी बात ये कि मानव मन इतना विशाल और संवेदनशील है कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति ये सोचता होगा कि उसे कोई नहीं समझता, सामने वाला उसकी जगह होता तब उसे एहसास होता कि उसने कितने दंश झेले हैं। ठीक भी है मनुष्य की अपनी प्रवत्ति है उसे अपना स्पेस चाहिए समझने वाला चाहिए, इसी के बूते पर तो सैकड़ों विचारधाराएं दुनिया में चल रही हैं.
कई बार आप किसी के जितने नज़दीक जाते हैं आपको उतने ऐब नज़र आते हैं. शायद नज़रिया ही ख़राब हो ये कह ले या जो चाहे कहते रहें, ऐब तो नज़र आते हैं. जहाँ मधुरता ज़्यादा हो वहाँ मक्खियां तो पनपेगी ही। मतभेद होंगे, विचारधारा बटेंगी.
सारी लड़ाई विचारों की ही तो है, मनुष्य और जानवर में सोचने की शक्ति का ही तो अंतर मात्र है.

अगर कुछ देर एक-दूसरे की जगह आपस में बदलकर देख लें तो शायद कई तरह से चीज़े ख़राब होने से पहले ही ठीक हो जाए. भारत भूषण पन्त साहब का एक शेर है कि
"अभी तक जो नहीं देखे वो मंज़र देख लेते हैं
चलो आपस मे हम आँखें बदलकर देख लेते हैं"

अभी तक हम जो सिर्फ़ अपने नज़रिए से देख रहे हैं उसे थोड़ी देर के लिए बदलकर देख लें तो चीज़ें ख़राब ना भी हो शायद.
शायद!
यहाँ झोल ये है कि हम अतिवादी लोग हैं.हम सब एक रेस में लगे हैं, हमें जल्दी प्रतिक्रिया देनी हैं. क्यूँकि हमारी कंडीशनिंग ऐसी हुई है. क्रिया हो गयी, प्रतिक्रिया दो. जल्दी जवाब दो,नहीं तो सामने वाला आगे निकल जाएगा.
बस इसी चक्कर मे जहाँ थोड़ा पॉज लेना था, थोड़ा रुकना था, सोचना था, समझना था. वो सब नहीं हुआ. प्रतिक्रिया हो गयी.
ये क्रम आगे चलता है.
अब मनुष्य जो सोचता है उसकी मानसिकता वैसी ही होती जाती है. नज़रिया जैसा रखता है नज़रे वही दिखाने लगती हैं. 
फिर इसके बाद ज़िद, ईगो, सुपर ईगो...चीज़ें ख़राब होती है. नकारात्मकता बढ़ती है. सम्बन्ध ख़राब होते हैं. शब्द भी ख़त्म हो जाते हैं. हो चुके हैं.
-नितेश
31.01.2022
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Wednesday, January 19, 2022

चाय पीने इतना वक़्त

अगर मरने के बाद हम सोचते तो ये ज़रुर सोचते कि "काश मौत ऐसे यूँ अचानक से ना आ गयी होती।"
आ भी गई होती तो घड़ी भर का वक़्त देती साथ मे चाय पीने जितना। कहती कि कुछ पल हैं अभी तुम्हारे पास। रिलैक्स! चाय पीने इतनी देर रुका जा सकता है। काश कि मौत की प्रक्रिया में कुछ ऐसे पलों की रियायत होती, जिनमें अपनों को अलविदा कहा जा सकता। प्यार का चेहरा घड़ी भर याद कर लेते। उन लड़ाइयों के लिए माफ़ी मांग लेते मन ही मन, जिनके लिए ईगो के चलते सारी उम्र ख़ुद से मुँह बचाते रहे। उन किताबों को शुक्रिया कह पाते जिनके ना जाने कितने एहसान हैं।
उन लेखकों को मन ही मन कह पाते कि "हमारे मन एक जैसे हैं" जिन्होंने हमारे मन की बात तब कह दी जब हम उस बात को कहने के लिए शब्दकोश के पन्ने पलट रहे थे।
गुनगुना लेते कोई पसंदीदा शे'र।
यक़ीन दिला पाते किसीको कि हम उसे पाना नहीं चाहते थे बस कि पल भर उसके साथ होना चाहते भर थे। या उसके साथ होकर उसे छूकर देखना भर चाहते थे। कि ख़ुद को दिला सके यक़ीन कि वो है सचमुच, इस जहाँ में है। कल्पना भर नहीं है। सचमुच है।
कितना कुछ किया जा सकते है बस चंद पल में। लगता है मैं जितना सोच चुका हूँ उतना कुछ। और फिर ये पल ख़त्म हो जाते। मौत ने अपनी चाय की प्याली ख़ाली कर दी होती।
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नितेश
18.01.2022

Friday, January 14, 2022

भावुकता : एक खतरनाक रोग

रेणु मैला आँचल में कहीं लिखते हैं कि 
"भावुकता का दौर भी एक खतरनाक रोग है"
मुझे याद है कि भावुकता वश मैंने जब भी कोई फ़ैसला किया है,किसी के सामने कोई बड़ी बात कहीं है उसका परिणाम ख़राब ही रहा है.
दूसरी मज़ेदार बात, मुझे लगता है कि भावुकता में आदमी कम से कम सच ही बोलता है (या जो उसे सच लगता है)
और ये बात तो सिद्ध ही है कि सच बोलने से आज के दौर में परिणाम ख़राब ही निकलता है.

      भावुकता यानी भावों के प्रवाह में कहीं गयी बात. जितनी ज़्यादा भावुकता उतना ही ज़्यादा  नो फिल्टरेशन. ये भी समझने योग्य है कि जो व्यक्ति जितना अधिक भावुक होता है , उसमें सच्चा होने के उतने प्रबल चांस हैं. भावुक व्यक्ति सच्चा, ईमानदार, संवेदनशील होता है, लेकिन तर्क, रिश्तों के जोड़-घटाव, फ़ायदे-नुकसान में उतना ही कच्चा. बहुत कमाल की बात यह भी है कि जो व्यक्ति पहले-पहल भावुक, संवेदनशील होता है, एक वक़्त के बाद वो प्रैक्टिकल हो जाता है.
आख़िरश सभी को अपने-अपने रोगों से बाहर निकलना चाहिए. सच भी है भावुकता रोग ही तो है,नुकसान पहुँचाने वाला ख़तरनाक रोग.
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-नितेश
14 जनवरी 2022
7.22  pm

Tuesday, January 11, 2022

बोझ से मुक्त

तुम्हें खोना जैसे बहुत से बोझ से मुक्त होना हो.
तुम्हारे साथ तुम्हें ढोना और ख़ुद को भी.
जैसे एक थकान सी लगी रहती थी. अब लगता है कितना सुखद है ख़ुद को ख़ुद के हिसाब से चलाना.
सबको लगता है तुमसे बिछड़कर मैं उदास हूँ,
जबकि तुम्हारे साथ मैं ज़्यादा उदास था.
अजीब है ना !
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11जनवरी 2020, 12:00 AM

Monday, January 10, 2022

प्रार्थनाएं जो कभी ईश्वर ने नहीं सुनी

प्रार्थनाएं जो कभी ईश्वर ने नहीं सुनी..
एक ज़रूरी ई-मेल (जो शायद 3-4 दिन पहले आया हो) देखने के लिए मेलबॉक्स खोला.
तमाम तरह के ग़ैर-ज़रुरी मेल्स के बीच ज़रुरी मेल खोजना मुश्किल जान पड़ा. अचानक ज़ेहन में आया कि स्पैम (अवांछित फोल्डर) में देख लूँ. कुछ ही सेकण्ड्स में मिल गया.
              इसी प्रक्रिया में ख़याल आया कि वे ज़रुरी प्रार्थनाएँ जो कभी पूरी नहीं होती, क्या ईश्वर तक पहुँची होंगी कभी?
क्या ईश्वर भी कभी स्पैम में अनसुनी/ अवांछित प्रार्थनाएं खोजता होगा?
क्या हुआ होगा उन निवेदनों का, जो ईश्वर ने प्रथम दृष्टया देखकर "....बाद में सोचूँगा" जैसे जुमले से पेपरवेट के नीचे दबा दिए हो और भूल गया हो. 
कितनी प्रार्थनाएँ, कितने मन्नत के स्वास्तिक, धागे अपनी जगह पर प्रतीक्षा कर रहे हो कि एक दिन ईश्वर लोगों के भेजे हुए सभी प्रार्थनाओं, e mails ,मन्नतों को स्वीकार कर ले.
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१० जनवरी, २०२०. 
6.22 pm
(छायाचित्र - साभार  इंटरनेट)

इंतज़ार

इंतज़ार.......इंतज़ार शीर्षक इसलिए कि अभी कोई ठीक ठाक शीर्षक सूझ नहीं रहा. वैसे भी सब कुछ ठीक ठाक से ज़्यादा कुछ है भी नहीं, कहीं पर भी नहीं।

वक़्त रेत की तरह  मुठ्ठी से फिसलता जाता है, उम्मीदें ताश के पत्तों के महल की तरह बिखरती रहती है, बार-बार...लगातार।

बना रहेगा इंतज़ार, जैसे अब तक था।

हाँ उम्मीद नहीं रहेगी अब के एक दिन अचानक से कोई, कभी नहीं जाने के लिए लौट आए और दिन पलट जाए।

जितना जिसके हिस्से का इंतज़ार था , उतना उसका किया जा चुका। 

ज़िन्दगी किसी बच्चे की मुट्ठी में छुपाई रेत है, 

ताश के पत्तों के महल की मानिंद ख़्वाईशे हैं.

अब फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ता किसी चीज़ का ये सोचता हूँ तो लगता है शायद यही ढूंढ रहा था ख़ुद में.

सोचता हूँ कभी फ़र्क पड़ता था ब्लॉक होने से,

किसी के फ़ोन ना उठाने से. अब एक ऊब होती है किसी से बात करने में, किसी से नहीं सब से.

कुछ एक दोस्त हैं जिनसे तबियत मिलती है .

एक है जो बिल्कुल अपने जैसा लगता है, उससे ना रश्क़ होता है ना ऊब. लगता है ख़ुद के हिस्से से बात करना.

एक सिरीज़ आयी थी समानांतर. वैसा ही कुछ.

ज़िन्दगी ठीक चल रही है कुल जोड़ घटाकर.

अब वैसी दीवानगी नहीं होती किसी के लिए, ख़ुद के लिए होता है सबकुछ.

पर ठीक ठीक अब भी नहीं पता कि क्या ढूंढ रहा हूँ. कभी जिसके लिए जीवन का सबकुछ लुटाया जा सकता था अब कुछ ख़ास फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ता. 

क्यूँ इतनी पसन्द बदल गयी हर एक चीज़ में.

वैसे तुम्हें बताना बस यह था कि अब सफ़ेद पसन्द नहीं उतना, अब नीला रंग सबसे ज़्यादा पसंद है। मुझे ख़ुद तक पहुँचाने का शुक्रिया।

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१० जनवरी, 2022

सुबह के ४ बजे


(तस्वीर : साभार internet )


ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...