किसी बहुत क़रीबी से मतभेद होना कोई बहुत बड़ा विषय नहीं है.
मतभेद बड़ी आसानी से दूर किए जा सकते हैं, बस इस आसानी में जो मुश्किल आती है वो ज़िद और ईगो की है.और चीज़ें हमेशा से ख़राब नहीं होती, एक पड़ाव आता है वही आगे का फ़ैसला करता है.
बाकि तो समय है निकल जाता है और जो होता है अच्छे के लिए ही होता है.
एक छोटी सी यात्रा में हूँ. बस में एक गीत चल रहा है. गीत में पंक्तियाँ आती है-
"अगले जनम विच अल्लाह ऐसा खेल रचा के भेज़े
मैनू तू बना के भेज़े,तैनू मैं बना के भेज़े
वे फ़ेर तैनू पता लगना."
काश ऐसी ही परिस्थितियों में अगले जन्म में हो और तू मेरी जगह हो तब शायद तुझे एहसास हो कि मेरे दुख क्या है. मैंने कितने दंश झेले हैं. कितना सहन किया है. मेरी ज़िन्दगी कितनी मुश्किल है तेरी कितनी आसान. तुझे एहसास होगा कि मुझ पर क्या बीतती है जब तू दुनिया के सामने कुछ और होता है और मेरे आगे कुछ.
इसका जो भाव है वो कोई ऐसी नई बात नहीं है,जो अब तक ना कही गई हो. मनुष्य ने जितना विकास किया है उसमें उसे ख़ुद का दुख दूसरे से बड़ा ही दीखता है. दूसरे की थाली में घी ज़्यादा ही दिखा है.इससे इतर दूसरी बात ये कि मानव मन इतना विशाल और संवेदनशील है कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति ये सोचता होगा कि उसे कोई नहीं समझता, सामने वाला उसकी जगह होता तब उसे एहसास होता कि उसने कितने दंश झेले हैं। ठीक भी है मनुष्य की अपनी प्रवत्ति है उसे अपना स्पेस चाहिए समझने वाला चाहिए, इसी के बूते पर तो सैकड़ों विचारधाराएं दुनिया में चल रही हैं.
कई बार आप किसी के जितने नज़दीक जाते हैं आपको उतने ऐब नज़र आते हैं. शायद नज़रिया ही ख़राब हो ये कह ले या जो चाहे कहते रहें, ऐब तो नज़र आते हैं. जहाँ मधुरता ज़्यादा हो वहाँ मक्खियां तो पनपेगी ही। मतभेद होंगे, विचारधारा बटेंगी.
सारी लड़ाई विचारों की ही तो है, मनुष्य और जानवर में सोचने की शक्ति का ही तो अंतर मात्र है.
अगर कुछ देर एक-दूसरे की जगह आपस में बदलकर देख लें तो शायद कई तरह से चीज़े ख़राब होने से पहले ही ठीक हो जाए. भारत भूषण पन्त साहब का एक शेर है कि
"अभी तक जो नहीं देखे वो मंज़र देख लेते हैं
चलो आपस मे हम आँखें बदलकर देख लेते हैं"
अभी तक हम जो सिर्फ़ अपने नज़रिए से देख रहे हैं उसे थोड़ी देर के लिए बदलकर देख लें तो चीज़ें ख़राब ना भी हो शायद.
शायद!
यहाँ झोल ये है कि हम अतिवादी लोग हैं.हम सब एक रेस में लगे हैं, हमें जल्दी प्रतिक्रिया देनी हैं. क्यूँकि हमारी कंडीशनिंग ऐसी हुई है. क्रिया हो गयी, प्रतिक्रिया दो. जल्दी जवाब दो,नहीं तो सामने वाला आगे निकल जाएगा.
बस इसी चक्कर मे जहाँ थोड़ा पॉज लेना था, थोड़ा रुकना था, सोचना था, समझना था. वो सब नहीं हुआ. प्रतिक्रिया हो गयी.
ये क्रम आगे चलता है.
अब मनुष्य जो सोचता है उसकी मानसिकता वैसी ही होती जाती है. नज़रिया जैसा रखता है नज़रे वही दिखाने लगती हैं.
फिर इसके बाद ज़िद, ईगो, सुपर ईगो...चीज़ें ख़राब होती है. नकारात्मकता बढ़ती है. सम्बन्ध ख़राब होते हैं. शब्द भी ख़त्म हो जाते हैं. हो चुके हैं.
-नितेश
31.01.2022
****
No comments:
Post a Comment