इंतज़ार.......इंतज़ार शीर्षक इसलिए कि अभी कोई ठीक ठाक शीर्षक सूझ नहीं रहा. वैसे भी सब कुछ ठीक ठाक से ज़्यादा कुछ है भी नहीं, कहीं पर भी नहीं।
वक़्त रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलता जाता है, उम्मीदें ताश के पत्तों के महल की तरह बिखरती रहती है, बार-बार...लगातार।
बना रहेगा इंतज़ार, जैसे अब तक था।
हाँ उम्मीद नहीं रहेगी अब के एक दिन अचानक से कोई, कभी नहीं जाने के लिए लौट आए और दिन पलट जाए।
जितना जिसके हिस्से का इंतज़ार था , उतना उसका किया जा चुका।
ताश के पत्तों के महल की मानिंद ख़्वाईशे हैं.
अब फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ता किसी चीज़ का ये सोचता हूँ तो लगता है शायद यही ढूंढ रहा था ख़ुद में.
सोचता हूँ कभी फ़र्क पड़ता था ब्लॉक होने से,
किसी के फ़ोन ना उठाने से. अब एक ऊब होती है किसी से बात करने में, किसी से नहीं सब से.
कुछ एक दोस्त हैं जिनसे तबियत मिलती है .
एक है जो बिल्कुल अपने जैसा लगता है, उससे ना रश्क़ होता है ना ऊब. लगता है ख़ुद के हिस्से से बात करना.
एक सिरीज़ आयी थी समानांतर. वैसा ही कुछ.
ज़िन्दगी ठीक चल रही है कुल जोड़ घटाकर.
अब वैसी दीवानगी नहीं होती किसी के लिए, ख़ुद के लिए होता है सबकुछ.
पर ठीक ठीक अब भी नहीं पता कि क्या ढूंढ रहा हूँ. कभी जिसके लिए जीवन का सबकुछ लुटाया जा सकता था अब कुछ ख़ास फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ता.
क्यूँ इतनी पसन्द बदल गयी हर एक चीज़ में.
वैसे तुम्हें बताना बस यह था कि अब सफ़ेद पसन्द नहीं उतना, अब नीला रंग सबसे ज़्यादा पसंद है। मुझे ख़ुद तक पहुँचाने का शुक्रिया।
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१० जनवरी, 2022
सुबह के ४ बजे
(तस्वीर : साभार internet )
Bahut khoobsurat likha hai ..🖤
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद
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