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Sunday, November 25, 2018

तुम्हारे बिना स्वर्ग का क्या करेंगे..


आसपास पटाकों की आवाज़ थी,शोर नहीं था,,ख़ुशियाँ थी!! शहर से गांव तक का पूरा रास्ता सजाया हुआ था। गाँव में उत्सव था। लोग एक-दूसरे को मिठाइयाँ बाँट रहे थे।
******

कुछ दिन पहले हम एक कॉफ़ी शॉप जैसे किसी रेस्तरां में बैठे थे। मैं बहुत कुछ कहना चाह रहा था पर लफ़्ज़ साथ नहीं दे रहे थे।
मेरे बोलने से पहले ही..
तुम- ''मैं तुम्हें इस हाल में नहीं देख सकती,तुम्हारे दुःख की वज्ह नहीं बन सकती उम्र भर!!''
मैं- ''ह्म्म्म्म तो..?''
तुम- ''चलो चलकर शादी कर लेते हैं!!''
अगले कुछ घण्टों में हम एक फूलों की दुकान के सामने थे। जो सड़क के उस पार थी।
मैं कुछ गुलाब और फूल मालाएँ लेकर तुम्हारी और बढ़ रहा था! तुम्हें देखकर मुस्कुराते हुए।
अचानक....
एक गाड़ी ने मुझे जोरदार टक्कर मार दी..

अगले कुछ घण्टे बाद..
आसपास बहुत से लोग..डॉक्टर्स, नर्स, रिश्तेदार,दोस्त और तुम...
मुझे लेटाकर जल्दी से वेंटिलेटर पर रखा जा रहा था.... शोर में बस ये सुनाई दे रहा था कि मेरी हालत बहुत नाज़ुक है! बचने की संभावनाएं नगण्य!मैं कोमा में था।

अगले तीन दिन हॉस्पिटल टाइप के मनहूस माहौल में तीन साल जैसे गुज़रते रहे।

चौथे दिन मैंने हरकत करना शुरू की..फिर से भीड़।
तुम मेरे सामने थी।
(मैं सबकुछ भूल चूका हूँ हादसे के दिन के बाद का। और जो याद है तबसे अब तक का वो ये कि..)
मैं- तुम यहाँ हो, मुझे कोई मिला था जो भगवान होने का दावा कर रहा था।
(सभी मेरी तरफ आश्चर्य और ख़ुशी से देख रहे थे, मैं बस बोलता जा रहा था, क्या? पता नहीं)
मुझे एक बहुत बड़े वेटिंग रूम में बिठाया गया, फिर सफ़ेद कपड़े पहने कोई आया, जिसने कहा कि तुम्हारे भगवान तुम्हे अंदर बुला रहे हैं, मैं अंदर गया ये सोचकर कि ज़रूर तुम कोई नाटक कर रही हो, या मुझे कोई surprice देने वाली हो। वहाँ गया तो वहाँ एक बहुत तेज़ आभामण्डल के कोई सिद्धपुरुष बैठे थे, लग रहा था मानों हज़ारों सालो से किसी तपस्या में लीन हो।)
  वो- हम भगवान हैं, ईश्वर!
मैं -नहीं वो तो अभी मेरे साथ थी, मैं जिससे प्रेम करता हूँ! जिससे मैं शादी करने जा रहा था और तुमने अचानक मुझे यहाँ बुला लिया, अब जल्दी बोलो मेरे पास ज़ियादः वक़्त नहीं है। मेरी शादी होने वाली है! मेरी प्रेमिका मुझे खोज रही होगी।
वो- बच्चे! मैं जानता हूँ तुम मुझसे ज़ियादा मानते हो उसे, पर उसकी फ़िक्र मत करो। तुम मर चुके हो अब।
मैं- ये कहाँ का न्याय है, तुम्हारी बेरंग दुनिया में मैंने बस एक रंग माँगा था, तुमने वो भी छीन लिया,, तुम ईश्वर नहींहो सकते। हो ही नहीं सकते!! शैतान हो तुम। जाओ अपनी दुनिया में जाकर देखो। किसी को प्रेम करके देखो। असल तपस्या है प्रेम। प्रेमी होने का
दुःख देखों, तब स्वयम् को ईश्वर कहना। तुम शैतान  से भी निर्दयी हो।

वो- तुम्हे अगले जनम में वही मिलेगी, तुम्हारा इंतज़ार करते हुए। अब जाओ आगे स्वर्ग का दरवाज़ा है।

मैं- नहीं चाहिए ये तुम्हारा बेकार स्वर्ग, जहाँ मेरी प्रियसी है वही मेरा स्वर्ग है।

(दो दरबान मुझे पकड़े हुए एक दरवाज़े की तरफ ले गए, और मुझे धकेल दिया)

फिर से हॉस्पिटल...
मैं - बस मुझे इतना ही याद है!!

सब रोने लगे और मुझे गले लगाने के लिए बढ़े। हम शहर के हॉस्पिटल से घर की और निकल पड़े और ये सफ़र ज़िन्दगी का था। बाकि सब कहानियाँ....!!

तो बस यही था,, कल रात जो ख़्वाब देखा था!!
कल रात एक ख़्वाब देखा था।

-न से नितेश🙂

Sunday, November 11, 2018

मैं और दूसरा मैं .

रात के ढाई बजे दरवाज़े पर दस्तक होती है...टक-टक-टक-टक

अचानक याद आता है कि मेरे कमरे में एक दरवाज़ा है जो मुझे क़ैद करके अपना होना भुला देता है। मैं दरवाज़े की तरफ़ नहीं बड़ता हूँ इस वक़्त कौन आया होगा, मेरा धोका होगा।
मैं अपने चारों और कुछ किताबों को रखकर दुनिया से बहुत दूर निकल चुका होता हूँ।
एक शब्द मन में आता है.....प्यास
मैं मटके की तरफ़ बढ़ता हूँ, वहाँ रखे हुए आईने पर नज़र पड़ती है। चेहरे को छू कर देखता हूँ, बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी और कई सारी झुर्रियां। याद नहीं आता पिछली बार कब ठीक से संवारा था ख़ुद को। तुम्हारे जाने और फिरसे लौट आने के बीच कई बार ख़ुद से झगड़ा हुआ और फिर एक नाउम्मीदी हो गयी ख़ुद से। तबसे ख़ुद की तलाश में हूँ। एक बच्चा जिसे भीड़ से डर लगता था, अब भीड़ के सामने खड़ा होता है तो लोग झूम जाते हैं। पर वो बच्चा सच में खो गया है। उसका होना ये नहीं था कि उसे नाम मिले अख़बारों और दुनिया से पहचान मिले, वो लोगों में उस बच्चे को ढूंढ रहा है जो उसने कहीं अनजाने में पीछे छोड़ दिया।
तुम्हारे जाने और लौट आने तक के सफ़र में उसने ख़ुद को कहीं रख दिया और भूल गया वो जगह जहाँ रख छोड़ा था।

सामने दीवार पर कुछ चुनिंदा तस्वीरें लगी हैं, जिनमें ज़िन्दगी की कई सच्चाइयाँ एक शुरुआती सफ़र उम्मीदों से भरा हुआ, वक़्त के पैरों के निशान जिनमें वक़्त से मिली हुई दुत्कार,, और एक उदास सूखा हुआ पेड़ है। दीवारों पर सीलन लग चुकी है बारिश की वजह से।
ठीक वैसी जैसी मन की दीवारों पर है।
बाकि सब बेजान।

अचानक दरवाज़े पर फ़िर दस्तक होती है इस बार मैं उठकर जाता हूँ दरवाज़ा खोलता हूँ और सामने ख़ुद को पाता हूँ।
मैं अपना स्वागत करके ख़ुद को ख़ुद के पास बिठाता हूँ। मैं और पुराना मैं एक-दूसरे को बहुत ग़ौर से देखते हैं।
मैं दूसरे मैं को अपनी एक ग़ज़ल सुनाता हूँ वो ''मैं'' कोई ख़ास जवाब नहीं देता कहता है- तुम अब वो मैं नहीं रहे, मैं तुमसे मिलने आया था, मुझे पता था तुम मुझे ढूंढ रहे हो'' और अचानक उठकर बाहर निकल जाता है, उसे रोकता नहीं हूँ । मैंने उसे जाने दिया फिर बाहर गया, उसे आवाज़ लगाई,, सुनों तुम कहाँ रहने लगे आजकल।
वो ''मैं'' पलटकर कहता है
'' मैं कुछ सालों से तो .......''

अचानक अलार्म बजती है और नींद टूटती हैं।।

-न से नितेश

Saturday, May 12, 2018

तुमसे किया वादा निभाऊंगी (भाग-1)

तुमसे किया वादा निभाऊंगी
__________✉_________
                          1
ज़िन्दगी एक रफ़्तार लिए आगे-आगे दौड़ रही थी, जबकि कोई ख़्वाहिश बची नहीं थी जिसके लिए परेशान हुआ जाता। बस कुछेक ज़रूरत भर की ज़िम्मेदारियाँ पुरी करने के लिए क़तरा भर काम थे। अपने पीछे कुछ ज़िंदगियाँ थी, जिसके लिए बचपने और सपनो का मुलायम गला घोंट दिया गया था।
*****

वो हमेशा सुबह और शाम दहलीज़ पर बैठे हुए सड़क पर आते-जाते लोगों को देखा करती। गली में फुटबॉल खेलते, छतों पर पतंग उड़ाते बच्चों को देख अपने बचपन के दिनों को याद कर मीठी-सी यादों में गुम हो जाती। कुछ दोस्त जो उसने एक-एक कर अपने से दूर कर दिए थे , उनकी ख़ुशनुमा ज़िन्दगी के कयास लगाती रहती और अपनी ज़िन्दगी के सबसे प्यारे लोगों को जो अब उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं रहे थे, सोचकर गाल भिगोती।

वो अपने मन में कल्पनाएँ कर कहीं दूर मस्ती के पल सोचती। अब वैसे दिन नहीं होते हैं जब दोस्तों से बात हो या कहीं घूमने जाने की योजनाएं बने ।

वो कभी ऐसी नहीं थी और उसे होना भी नहीं चाहिए था, वो कभी अपने चुलबुलेपन और नटखट मिज़ाज से कई दिलों को लूट लिया करती थी । आँखों में सिर्फ काजल या आई लाइनर और हल्का-सा मैकअप । बातें बच्चों सी बिल्कुल। हंसे तो फूल खिल पड़े; रोये तो बिजलियाँ कौंध जाये।
वो हमेशा उल्लास से भरी रहती। कभी रुकने का नाम नहीं कहीं। बड़े-बड़े सपने।
*****

एक दिन ऐसे ही किसी बात पर हँसते हुए अचानक चुप हो गयी। आँख से आँसू चू पड़ा।
वाक़ई तब लगा कि छोटी-सी ज़िन्दगी और मौज मस्ती की उम्र में ज़िम्मेदारियां भी हो सकती है। फिर कुछ दिन उसे देखा नहीं किसी ने। अगली बार जब मिली तो एकदम दुबली-पतली सी। आँखों में काजल फैला हुआ और ना बातों में वो बात। हम सब अब भी कूल ड्यूड बने थे। पर वो वक़्त से पहले बड़ी हो चुकी थी।
हर दफ़ा से उलट इस बार बात करते हुए वो भावुक नहीं हुई। मैं एकटक उसकी बातें सुन रहा था, बीच-बीच में गाल भिगोकर उसके दुपट्टे के किनारों से आँखों को पोंछता हुआ। वो मुझे ज़िन्दगी के दूसरे पहलू समझाती हुई कि ये सब उसके लिए कितना ''नॉर्मल'' है और मेरे नहीं समझने पर उसकी आँखों से मोतियों की धार फूट  पड़ी ।
उसने वादा लिया कि तुम्हारा एक भी आँसू अगर  आँख से बाहर आया तो मेरी आँखों से सैलाब फूट पड़े। अब दोनों चुप थे।

अचानक ज़िन्दगी में कुछ और तब्दीलियां हुई पर हम अपने अंदर रोना सीख चुके थे ।।
****
-नितेश✉

Friday, April 13, 2018

उदासी भरी शाम..!!

उससे मिलना और बिछड़ जाना पिछले किसी जन्म में किये गए सबसे बड़े पाप की सज़ा थी..। ये सोचते हुए मैं नियति को महसूस किया करता ।
****
रिश्तों में लिपुलेख दर्रे जितनी दरारें पड़ चुकी थी। दुनिया भर का प्रेम भी अब उन दरारों को भरने में ना-काफ़ी था।

हमने कई बार आख़िरी मुलाक़ात की..अब उससे अकेले में जब भी मिलना होता था तो बात नहीं होती थी कुछ भी। सबकुछ जाना जा चुका था या मिलने के पहले पूछा जा चुका  होता था..होती थी बस एक चुप्पी की जगह दोनों के ख़ालीपन के बीच।
आसपास बहुत लोग नहीं होते थे..होते भी थे तो अपरिचित।

कई दिनों के बाद एक उदासी भरी शाम को और ज़्यादा उदास बनाने के लिए मुलाक़ात का वक़्त और जगह तय हुई थी। कॉफ़ी आर्डर की गयी..दोनों चुपचाप नज़रे चुराकर देखते  एक-दूसरे को।

बैकग्राउंड में हल्की धीमी आवाज़ में सुरीली ग़ज़ल "होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है" प्ले हो रही थी।
उसकी ख़ूबसूरती ने फिर से प्यार में गिरने को मजबूर किया जब ग़ज़ल के एक मिसरे  "आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है" के साथ मेरी नज़र उसके कॉफ़ी लगे हुए होंठो पर अटक गयी।

बीच-बीच में कुछ औपचारिक बातें। आसपास प्रेम में डूबे जोड़े। मस्ती करते कुछ कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ।
  कैफ़े में लगी पेंटिंग्स को देखते हुए बीच-बीच में मन भारी हो जाता। कभी ये सोचकर कि अब कभी मिलना नहीं होगा। अब वो पहले सा एहसास मर चुका था। जब घण्टों बैठ कर दोनों बतियाते रहते थे। अब लगता है कि जेल में आ गए है.. मिलने ही नहीं आना था। मैं मन ही मन मिलने के लिए "ख़राब" किये वक़्त और पैसे का हिसाब जोड़ने लगता। सिगरेट पीने की तलब लगती। होंठ सूखने लगते। बड़ी मुश्किल से पर्स की तरफ हाथ जाता और एक बिसलेरी बुलाई जाती।
फिर एक बार क़ैदखाने में फ़िज़ूल की बातें और चुप्पी का सिलसिला शुरू होता। उसके माथे की सिलवटें बताती कि उसे किसी पुराने दोस्त से मिलना जाना होता था। मुझे किसी "मानाकि" वाली गर्लफ्रेंड के साथ डेट पर।
दोनों बातें ख़त्म होने का इशारा अपनी घड़ी देखकर करते एक-दूसरे को।
कैश काउंटर पर पेमेंट किया जाता और अपनी-अपनी राह जाने से पहले कहते कि बहुत अच्छा लगा मिलकर।

हाँ जाते-जाते मैंने उससे ये भी कहा कि मैंने तुमसे प्रेम किया ही नहीं कभी
-नितेश कुशवाह "निशु"

Thursday, April 12, 2018

मन का फ्लैशबैक

*मन का फ्लैशबैक*
by-- नितेश कुशवाह
special thanks for ending point-- ख़ुशबू मालवीया दी
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''तू कब से मर गया है मेरे भीतर,
मैं तेरी लाश ख़ुद में खोजता हूँ।''

बाद उसे खोने के कुछ बचा नहीं। किस्मत की लकीरे जैसे हाथों से गिर चुकी थी। सब ख़त्म होता जा रहा था। उदासी बदन से लिपटी रहती थी।
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बरसात के दिन थे। शाम का वक़्त 4-5 बजे के क़रीब। ख़ूब बारिश हो रही थी। मैंने अपने पड़ोसी से छाता माँगा और बस स्टॉप की तरफ निकल पड़ा। बहुत जल्दी-जल्दी तेज़कदमी के साथ। दुरी 2 km पैदल जाने में 15 मिनट लगते थे। पर किसी की फ़िक्र होती है तो आप सड़को पर हद तक पानी भरा होने के बावजूद भी 15 मिनट का सफर 6-7 मिनट में तय कर सकते है। परिस्तिथियां प्रतिकूल होने के बावजूद। बस स्टॉप पर पहुचने पर जिसे लेने आया था, जिसकी फ़िक्र थी उसे ज्यो हो फ़ोन लगाने के लिए  मोबाइल निकाला तो एकाएक कुछ याद आया।

दिमाग चुप एकदम। आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। किसी दीवार के सहारे खड़े रहने की कोशिश की।
कभी-कभी हमारा दिल-ओ-दिमाग कुछ सच्चाइयों को स्वीकार नहीं कर पाता। हम हमेशा वैसे ही बने रहना चाहते है। हम अपने झूठ के मयारों को तोड़ नहीं पाते।

पिछली बारिश छाता लेकर उसे लेने आया करता था इस स्टॉप पर ताकि वो भीग ना जाए।
याद आया कि जिसके ख़यालो में पागल होकर यहाँ आया था वो शहर छोड़कर एक साल पहले जा चुकी है।
अबकी बारिश आँसुओं की भी बहा ले गयी अपने साथ...
*****
ख़्वामख़्वाह की ये बारिश अब तो बदमिजाज़ सी लगती है,
शबनम सी गिरती ये बूंदें भी
मेरे बदन पर अब तेज़ाब सी लगतीं हैं, वो कहीं दूर बैठी है फिर भी क्यों मेरे पास सी लगती है ....

Monday, April 2, 2018

हारा हुआ आदमी

तुम्हारी ग़ुस्से भरी नाराज़गी से लगता है कि हममें कोई रिश्ता अब भी ज़िंदा है।

भरी दोपहरी।मार्च के आख़िरी दिन। बीमार करने पर उतारू धूप और सन्नाटे में चीख़ती तपन।
दोपहर का एक बजा होगा शायद।
किसी का साथ पाने की ज़िद में पाग़ल हुआ मन। और मेहनत करता शरीर। उस पर रूठी हुई नियति कि मानो चिड़ा रही हो। हर जगह हँसते पहचान के कुछ लोग।
whatsapp पर लगातार ब्लिंक करते msg।
एक हारा हुआ आदमी.....
आसपास से गुज़रते हुए मुसाफ़िर।

एकाएक एक अधेड़ आदमी सड़क पार करते हुए सड़क पर आ रहे ट्रक से जा टकराया। ग़लती ट्रक ड्राईवर की नहीं थी। आदमी की भी नहीं। जैसा नियति ने चाहा वैसा हुआ। ख़ैर है कि उसको बाहरी चोट लगी थी । बाहरी चोट में बचना आसान होता है, मन की चोट के मुक़ाबले।
अचानक याद आ धमका कि ऐसे ही कभी मैं अपना अच्छा वक़्त पार करते हुए तुम्हारी टक्कर की भेंट चढ़ा था। बहुत सी अंदरुनी चोटें मन में पड़ गयी। धीरे-धीरे जब सम्भला तो तुम्हे अपना हमराह बना पाया । हालाँकि कोई कॉन्ट्रैक्ट साइन नहीं किया था। 
वक़्त के साथ बेतरबीती ख़त्म होने लगी। सबकुछ सलिखें से होने लगा। निकल पड़ा ख़ुद को सभ्य और क़ाबिल बनाने के सफर में। आगे के लिए कोई वादा नहीं। वादा अक्सर काबिल लोग करते है , नालायक लोग सरप्राइज देने का सोचते रहते है।
वक़्त बीता।
महीना-दो महीना-एक साल-डेढ़ साल।
काबिलियत जैसी किसी शै का दूर- दूर तक पता नहीं।
एक दिन सब ठीक होने वाला था कि...ख़ैर ग़लती तुम्हारी नहीं थी। तुमने 'आईने' वाला रवैया अपना लिया। धीरे-धीरे तुम्हे एहसास हुआ या यूँ कहे कि हालात मेरे हक़ में होने लगे।
मुझे शौहरत मिलने लगी। सबकुछ ठीक से चलने ही लगा था। कबिलियत के बहुत पास। एकदम पास। 3-4 हाथ की दुरी।
कि फिर वही मनहूसियत।

ख़ैर...तुम्हारी ग़लती नहीं है कोई भी। नियति ने मुँह फेर लिया हमेशा के लिए। एक-एक कर हर उम्मीद टूटती गयी सब कुछ ठीक होने की। मैं कुछ नहीं कर पाया कभी सिवा  तुम्हारे साथ रोने के। एक छोटी सी ख़ुशी मैं दे सकता था , पर फिर से वही। साली क़िस्मत। शायद मैं बहुत कुछ बदल भी सकता था। पर नियति के   इशारे देर से समझा। और एक-एक कर सबकुछ तुम्हारे हाथों से जाता गया। अब करने को कुछ नहीं है बस एक और उम्मीद के। उदास मत हो दिन फिरेंगे किसी दिन। हम जीतेंगे देख लेना। बस तुम हिम्मत मत हारो। कुछ दिन और। अभी बस माफ़ नहीं कर पा रहा ख़ुद को। तुमसे किया वादा गूँज रहा है अब भी। बाकि कोई आवाज़ कहीं से नहीं आ रही।
सब चुप हो गए।

Thursday, March 15, 2018

हम हारे हुए लोग है..

"जब हार रहे हो तो जानबूझकर गिर जाओ, बहाना तो मिल ही जाता है।"
..फिर एक दिन ऐसा कोई बहाना करके हम ख़ुद पर झूठा गर्व जताते है। एक दिन वो वादे भी भूला दिए जाते है, जिसे भविष्य की सबसे मज़बूत नींव समझ लेते है।
*****
फेसबुक का On This Day वाला फीचर कभी-कभी बुरी यादों को भी सामने ला खड़ा कर देता है।
     जिसे हमें भूलने में अरसा लगा हो वो बातें भी हम नहीं भूल सकते। दरअसल हम भूलें ही नहीं थे, हम ढोंग कर रहे होते है।
हम बड़े हो चुके होते है उन "नादानियों"(?) के लिए कहीं भी जगह नहीं बचा पाते....।
*****
सब खेल रास्तों का होता है और एक छोटी-सी गड़बड़ी से तय होता है ..वो जो शायद नहीं होना था या होना था..??
  हम कभी सोच नहीं पाते कि सही क्या है..फिर स्वीकार करने के सिवा कोई चारा नहीं होता तो चुपचाप ख़ुद को समझाते है कि जो हुआ अच्छा हुआ।
****
हम हारे हुए लोग है, ऐसे लोग जो आसानी से साबित कर सकते है कि हमारी हार में हमारा कोई दोष नहीं था।
हार-जीत का क्या है वो तो चलती रहती है। एक सिक्के के दो पहलू है।
हाँ सिक्का वही, जिसे उछाल कर हम ज़िन्दगी के फ़ैसले लेते है कभी-कभी। और फिर उन्हें मानते नहीं है या तब तक उछालते है जब तक वही परिणाम ना आए,जो हम पहले से चाहते है।

हम लोग दोगले क़िस्म के बुरे इंसान है। सो नियति को भला-बुरा कहना हमारे हक़ में नहीं है। चलने दो जो हो रहा है। कहीं चलकर चाय पीते है इस बकवास में कुछ नहीं रखा।
*****
सुनों वो सिक्का खो गया है जिससे तुमनें  फैसला किया था उस दिन, अगर मिले तो लौटा देना। उसे सम्भाल कर रखूँगा।
-नितेश कुशवाह 'निशु'
8 मार्च 2018
दोपहर और शाम के बीच का वक़्त
【 5 मार्च 2016 की एक पोस्ट पर नज़र पड़ने के बाद लिखी गयी बकवास】

Tuesday, March 13, 2018

मेरी आँखें _आँसू तुम्हारे

उसकी आँखों में साफ़ दिखाई दे रहा था कि वो रोना चाहती थी,ख़ूब रोना चाहती थी। मगर वो दुनिया के सामने ख़ुद को कमज़ोर ना बताने की कोशिश  में  कभी रो नहीं पाई। जब भी उसकी रोने की बारी आती वो हर बार धोखा देकर उन आँसुओ को सम्भाल कर रखती और फिर जैसे ही तन्हा होती ख़ूब रोती, सिसक-सिसक कर रोती।
उसे लगता था कि ये उसके सब्र का इम्तिहान है, पर वो नहीं जानती थी कि वो इसमें असफल हो चुकी है ।

मैं रोया उसकी तरफ से,, इसलिए नहीं कि मैं कमज़ोर पड़ गया था। मैं चाहता था कि मैं उसे बता पाऊँ कि तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं है,,!!
***
सुनो..!! तुम मत रोना कि रो रहा हूँ मैं तुम्हारे हिस्से का..
सुनो..!!तुम मेरी हिस्से की हँसी हँसती हुई अच्छी लग रही हो..!!
___सिर्फ तुम्हारा..
-नितेश कुशवाह 'निशु'

Tuesday, January 2, 2018

हैप्पी न्यू ईयर

साल-दर-साल ज़िन्दगी एक ग्लेशियर जैसे पिघल रही है । ग्लेशियर भी इतना विशाल और ज़िद्दीला किस्म का जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा , जबकि इसके ख़त्म होने से धीरे-धीरे एक दुनिया डूब  रही है।

कुछ कागज़ टेबल पर बेतरतीब पड़े थे।जिनपर एक गर्द की परत जम गयी थी।सफाई और सलीके जैसा कुछ ना रहा था ना ज़िन्दगी में ना कमरे में।2-3 ख़त्म हुई पेन और एक भरी हुई ऐश ट्रे,कुछ अधजली सिगरेट और 1 माचिस,कुछ ख़ाली शराब की बोतलें,जिनमे कुछेक कतरा शराब मुश्किल वक़्त के लिए बचा रखी थी।
इसके अलावा अच्छी मुलाक़ातों, यादों की कतरनें और कुछ ग़मज़दा शिक़वे-शिकायते , कुछ सवाल जिनके जवाब अब कभी नहीं मिलने थे।
सब एक टेबल और 10×12 के कमरे में पसरे थे।

मन को लोगों से एक नाउम्मीदी हो चली थी। कपड़ों से आती बासी पसीने की गंध और सिगरेट के धुएं के बीच अचानक आईने पर नज़र पढ़ी तो पाया कि चेहरे पर कुछ सवालिया भाव और एक अजीब सी तन्हाई थी जो अरसे से मौजूद थी ।
"शायद अब रुक जाना चाहिए"
मैंने ख़ुद से पूछा। एक अधूरा काम जो मैं पूरा नहीं कर पा रहा था। यूँ भी मैंने आजतक कोई काम पूरा नहीं किया कभी। पर इस बार चाहना थी के पूरा ज़रूर करूँगा।कुछ सवाल थे।अजीब-से सवाल जिनके जवाब कहीं मिल नहीं पाये। क्या-क्या पैतरे नहीं आज़माए मैंने। अब हारकर ये भी अधूरा छोड़ना है।
हम सभी एक ऐसी कहानी के किरदार है जिसमें एक मदारी है जो ज़िन्दगी है और
हम उसकी साँकल से बंधे बंदर। अपना पेट भरने की ख़ातिर हम ज़िन्दगी के मुताबिक़ तमाशा करते है। और जब थक जाते है तो किसी और कहानी में तमाशा कर रहे होते है। सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होता।
पर कोई तो जवाब होंगे इन सवालों के यूँ कब तक अधूरापन सहे कोई।
ऐसे ही जवाब ढूँढने की ज़द में पागलपन बढ़ता जा रहा था।थक-हारकर उसने अपनी डायरी निकाली जो सीलन से बुरी तरह ज़ख़्मी थी,बिल्कुल वैसे है जैसे उसका अंतर्मन होता जा रहा  था। कुछेक पन्ने तेज़ी से पलटते हुए डायरी में रखे एक ख़त पर उसकी नज़र थम गयी।
आँखें कुछ फैल गयी।दिल ज़ोरों से धड़कने लगा।उँगलियाँ आश्चर्य के मारे आपस में उलझ गयी। एक अजीब सी चुप्पी।जल्दी से कुछ पढ़ने के लिए साँसे रोक ली गयी।रोंगटे खड़े होने लगे।
लिखा था..... "अब शायद ये हमारा आख़िरी न्यू ईयर हो हम अब कभी नहीं मिलेंगे । तुम्हें वो पसन्द नहीं करते बिल्कुल भी। और मुझे ज़िन्दगी तो उन्ही के साथ बितानी है । मजबूर हूँ । तुम्हारा यहाँ तक साथ देने का शुक्रिया। अबसे मुझे ख़ुद वक़्त पर खाना वगैरह याद रखने होंगे,तुम ज़हमत मत करना।और प्लीज् कभी कॉल या msg तो बिल्कुल भी नहीं।अच्छा ख़याल रखना अपना।वो आ गए है रिप्लाई मत करना।आख़िरी बार लव यू।"
डाईरी कुछ 2-3 साल पहले की थी। जिसमे वो सारी बातें दर्ज़ थी जो उसके दिमाग़ से मिट चुकी थी।
ज़िन्दगी और वक़्त की रवानी में वो कब इतना बदलता गया उसे याद ही ना रहा।
पर वो आगे बढ़ गया था।और इतना बुरी तरह के अब पीछे जाना मुमकिन नहीं था शायद।
इस ख़त को आज देखा तो कई बातें ज़हन में आई।दिमाग़ पर ज़ोर डालने से एक धुंधला चेहरा याद आया।थोड़ी और ज़हमत उठाई और फोनबूक टटोली,एक नंबर जो "ज़िन्दगी" नाम से दर्ज़ था कॉल किया। स्विच ऑफ आया। कुछ दोस्तों से हाल जाना, पर ये क्या वक़्त ने एक और तमाचा उसे जड़ दिया। पता चला के वो जिसके लिए छोड़ गयी थी।कमीना निकला।और शादी से मना करके भाग गया।इधर मुहब्बत के वो पल फिर जवां होने लगे थे।पर उसके दिल में मुहब्बत किसी नए मटके की तरह वक़्त के साथ रिसते हुए कम भी हुई थी।
जिन बातों को भूलने का हम कभी सोचते नहीं हालात उन चीजों को भी भुला ही देता है।ये वक़्त है कब किसी का हुआ है।कोई नहीं रोक पाया इसे।
वो जल्दी से उठा और स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा।जो वक़्त 2 साल में 2 घण्टे जैसे बीत गया वही आज 8 घण्टे का वक़्त  रेल में बैठे बैठे 80 सालो सा लगने लगा था। मुश्किल से एक स्टेशन पर उतरकर तेज़ी से भागते हुए।एक कॉल किया और अगले कुछ मिनट में वो अपनी उस "ज़िन्दगी" के साथ एक कैफ़े में था। रात के साढे ग्यारह बज रहे थे शायद।  उसके कपड़ो से आती बदबू , बड़ी हुई बेतरतीब दाड़ी,और बाल देखकर आसपास वाले लोगों की  शक़ की निगाहें आज उसकी तरफ थी।ये वही शहर था जहाँ कभी उसे एक बड़े लेखक के नाम से पहचाना जाता था। पर वक़्त...क्या भरोसा...वो जिन हालातों से आया था.जिन सवालों का जवाब ढूंढ रहा था वो सारे जवाब आज उसके सामने सशरीर मौजूद थे। सालों बाद उसके चेहरे पर आई मुस्कुराहट के साथ उसने 2 हॉट कॉफ़ी आर्डर की।
याददाश्त लौटने लगी थी।वो सब पल जो साथ जिए गए थे ज़िन्दगी के आख़िरी खूबसूरत लम्हों की तरह।आज उन्हें दोहराया जा रहा था। हॉट कॉफ़ी सर्व हुई। दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखने लगे। फिर खड़े होकर हाथ थामकर किसी ठिकाने पर।
पटाकों की आवाज़ ने चुप्पी तोड़ी।
दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया कहा-"हैप्पी न्यू ईयर"😊
***

ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो  रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो    टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को  ये भी हो सकता है...