नमस्कार! मेरी यादों के इस डिजिटल झरोखे में आपका स्वागत है। दैनिक दिनचर्या में जब कभी यादों की दराज से कुछ स्मृतियाँ बाहर निकलकर झाँकने लगती हैं, तो मैं भी कुछ देर उन्हें गले लगाकर पुरानी कोई बात कहने सुनने लगता हूँ। बस उन्हीं किस्सों के आस-पास कहीं यादों,बातों, कल्पनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश ये ब्लॉग है। शायद मेरी कोई याद आपकी भी किसी याद जैसा हो।
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Monday, April 11, 2022
ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!
Thursday, March 24, 2022
एंजायटी के दिनों के नोट्स - १
Thursday, March 10, 2022
स्व से पलायन: एक आत्ममंथन
घर में रहते हुए यूँ तो लगता था कि अपनो के आस-पास हैं, पर अपने आप से दूर होकर कैसा लगता है ये सिर्फ मुझे घर ही ठीक-ठाक तरह से महसूस होता था। मैं घर में तीसेक दिन रहता तो मुझे जैसे घर काटने को दौड़ता था। मेरा बचपन से ही कहीं भाग जाने का मन करता था, पर मैं कभी ज़्यादा दिन तक के लिए कहीं भाग नहीं पाया।
भाग कर जाना कहाँ ? शायद ये सवाल मैं कभी हल नहीं कर पाया।
दरअसल मैं अपने आप से भागना चाहता रहा हूँ।वये मुझे बिल्कुल ठीक तरह से तब पता चला जब मैंने अज्ञेय से सम्बन्धित या अज्ञेय का लिखा हुआ “स्व से पलायन ...” जैसा कुछ पढ़ा। कई दिनों तक मैं उसके आकर्षण में रहा।
फिर एकाएक एक दिन मुझ पर खुला कि यही तो मैं चाहता था/हूँ। स्व से पलायन....ख़ुद से भागना..
मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता था.ख़ुद का मतलब जो मैंने अब तक जीया। मैं वर्तमान में तो रहना चाहता था , मगर ऐसा वर्तमान जहाँ भूत ना हो, बिल्कुल भी नहीं।
सबके अपने-अपने पिंजरे होते हैं, पर सब आज़ाद होना नहीं चाहते।
मेरे लिए मेरा पिंजरा मेरा अतीत था या हमेशा से रहा है।मैं अतीत से भागना भी इसलिए चाहता रहा हूँ कि मुझे वो सब ग़लतियाँ नहीं करनी थी जो मैंने की। जिसका एक बड़ा परिणाम मैंने भोगा। पर इतनी सारी गलतियाँ सुधारना मुश्किल होता, उससे आसान होता सारे अतीत को मिटा देना।
स्व से पलायन मतलब क्या? ये ठीक-ठीक मेरे लेखन की पकड़ में नहीं आता। लेकिन मैं ख़ुद को अपने से बाहर महसूस करना कैसा होता है. बिल्कुल वैसा महसूस करना चाहता हूँ। एक-दो बार शायद मैंने महसूस किया भी है।वैसे ही मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ ख़ुद को सामने वाले पेड़ की डाली पर बैठी चिड़िया जैसे मुझको देख रही है उस निगाह से।
अक्सर मैं जब बैठता हूँ कहीं चाय की टपरी पर तो वहाँ से जाते हुए 2-3 बार मुड़कर देखता हूँ कि कुछ छूट तो नहीं गया। दरअसल मैं ख़ुद को कहीं थोड़ा-सा छोड़ आता हूँ या भूल आता हूँ शायद। मेरे जिस छूटे हुए हिस्से को मैं पलटकर देखता हूँ 2-3 बार, वो दिखाई नहीं देता, शायद उड़ जाता है हवा में या ब्रम्हांड में चले जाता हो पता नहीं। लेकिन कुछ तो छूटता ज़रुर है।
कभी-कभी चलते चलते मैंने महसूस किया है कि मैं रेत की तरह कुछ-कुछ रिसता जा रहा हूँ। ठीक-ठीक रेत की तरह भी नहीं थोड़ी कम गति से, लेकिन रिसता जाता हूँ।
शायद ये मेरा अतीत ही हो जो जगह-जगह मुझसे कहीं छूट जाता है, जो रिसता जाता है। असल में हम जैसे लोग अभावों में जिए हुए लोग हैं। जो कुछ हमने ख़राब भोगा उसे हम छोड़ देना चाहते हैं। कहीं किसी गहरी खाई में फेंक देना चाहते हैं। हम हमारे हिस्से की खुशियों पर ज़्यादा दिन ख़ुश नहीं रह पाते।हम दुखो को ढोने के इतने आदि हो चुके हैं कि अगर थोड़े-थोड़े अवकाश के बाद पीड़ा ना नज़र आये तो हम उसके कारण खोजने लगते हैं।
हम अपने अभावों से भाग जाना जाता हैं, अपने अतीत से भाग जाना चाहते हैं, हम भूत से भागना चाहते हैं, वर्तमान में हो रही घटनाओं के प्रति उदासीन रहकर हम वर्तमान, भविष्य सब से भाग जाना चाहते हैं। हम थके हुए लोग हैं। पर एक दिन हम भाग कर लौट आएंगे वो जो लोग भटकते हुए नाकाम हो जाते हैं और घर लौट आते हैं उनकी तरह। अभी आवारागर्दी भली लग रही है। भागने में आनंद है।
-नितेश
१० मार्च २०२२
Monday, February 21, 2022
बूढ़ी कविताएँ
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यादों का झरोखा
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मौन में रिश्तों की बात
Wednesday, January 19, 2022
चाय पीने इतना वक़्त
अगर मरने के बाद हम सोचते तो ये ज़रुर सोचते कि "काश मौत ऐसे यूँ अचानक से ना आ गयी होती।"
आ भी गई होती तो घड़ी भर का वक़्त देती साथ मे चाय पीने जितना। कहती कि कुछ पल हैं अभी तुम्हारे पास। रिलैक्स! चाय पीने इतनी देर रुका जा सकता है। काश कि मौत की प्रक्रिया में कुछ ऐसे पलों की रियायत होती, जिनमें अपनों को अलविदा कहा जा सकता। प्यार का चेहरा घड़ी भर याद कर लेते। उन लड़ाइयों के लिए माफ़ी मांग लेते मन ही मन, जिनके लिए ईगो के चलते सारी उम्र ख़ुद से मुँह बचाते रहे। उन किताबों को शुक्रिया कह पाते जिनके ना जाने कितने एहसान हैं।
उन लेखकों को मन ही मन कह पाते कि "हमारे मन एक जैसे हैं" जिन्होंने हमारे मन की बात तब कह दी जब हम उस बात को कहने के लिए शब्दकोश के पन्ने पलट रहे थे।
गुनगुना लेते कोई पसंदीदा शे'र।
यक़ीन दिला पाते किसीको कि हम उसे पाना नहीं चाहते थे बस कि पल भर उसके साथ होना चाहते भर थे। या उसके साथ होकर उसे छूकर देखना भर चाहते थे। कि ख़ुद को दिला सके यक़ीन कि वो है सचमुच, इस जहाँ में है। कल्पना भर नहीं है। सचमुच है।
कितना कुछ किया जा सकते है बस चंद पल में। लगता है मैं जितना सोच चुका हूँ उतना कुछ। और फिर ये पल ख़त्म हो जाते। मौत ने अपनी चाय की प्याली ख़ाली कर दी होती।
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नितेश
18.01.2022
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बोझ से मुक्त
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प्रार्थनाएं जो कभी ईश्वर ने नहीं सुनी
इंतज़ार
इंतज़ार.......इंतज़ार शीर्षक इसलिए कि अभी कोई ठीक ठाक शीर्षक सूझ नहीं रहा. वैसे भी सब कुछ ठीक ठाक से ज़्यादा कुछ है भी नहीं, कहीं पर भी नहीं।
वक़्त रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलता जाता है, उम्मीदें ताश के पत्तों के महल की तरह बिखरती रहती है, बार-बार...लगातार।
बना रहेगा इंतज़ार, जैसे अब तक था।
हाँ उम्मीद नहीं रहेगी अब के एक दिन अचानक से कोई, कभी नहीं जाने के लिए लौट आए और दिन पलट जाए।
जितना जिसके हिस्से का इंतज़ार था , उतना उसका किया जा चुका।
ताश के पत्तों के महल की मानिंद ख़्वाईशे हैं.
अब फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ता किसी चीज़ का ये सोचता हूँ तो लगता है शायद यही ढूंढ रहा था ख़ुद में.
सोचता हूँ कभी फ़र्क पड़ता था ब्लॉक होने से,
किसी के फ़ोन ना उठाने से. अब एक ऊब होती है किसी से बात करने में, किसी से नहीं सब से.
कुछ एक दोस्त हैं जिनसे तबियत मिलती है .
एक है जो बिल्कुल अपने जैसा लगता है, उससे ना रश्क़ होता है ना ऊब. लगता है ख़ुद के हिस्से से बात करना.
एक सिरीज़ आयी थी समानांतर. वैसा ही कुछ.
ज़िन्दगी ठीक चल रही है कुल जोड़ घटाकर.
अब वैसी दीवानगी नहीं होती किसी के लिए, ख़ुद के लिए होता है सबकुछ.
पर ठीक ठीक अब भी नहीं पता कि क्या ढूंढ रहा हूँ. कभी जिसके लिए जीवन का सबकुछ लुटाया जा सकता था अब कुछ ख़ास फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ता.
क्यूँ इतनी पसन्द बदल गयी हर एक चीज़ में.
वैसे तुम्हें बताना बस यह था कि अब सफ़ेद पसन्द नहीं उतना, अब नीला रंग सबसे ज़्यादा पसंद है। मुझे ख़ुद तक पहुँचाने का शुक्रिया।
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१० जनवरी, 2022
सुबह के ४ बजे
(तस्वीर : साभार internet )
ना अपने बारें में ना तुम्हारे.. दुनिया के किसी हिस्से की बात!
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को ये भी हो सकता है...
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ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो रास आने लगे हम को तो ये दुनिया ही न हो टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को ये भी हो सकता है...
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घर में रहते हुए यूँ तो लगता था कि अपनो के आस-पास हैं, पर अपने आप से दूर होकर कैसा लगता है ये सिर्फ मुझे घर ही ठीक-ठाक तरह से महसूस होता था।...